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________________ त्रिलोकसार पाषा ३५३ १२.१५० x ६५०५.१२० से अवशेष भाग को गुणा करने से- ( १२ x २५५१२० }= 3 १७४४HTP:०० योजन जीवा की कृति अर्थात् जोबा के वर्ग का प्रमाण है। इस निषनाचल के जीवा को कृति के वर्गमूल का जो प्रमाण है, वही जीवा का प्रमाण है। निपधाचल की जीवा का प्रमाण १८.५७ = ६३७७३१४ योजन है। निषधाचल के चाप को कृति :-निषधाचल के बाण का प्रमाण १२३५५.० योजन है। इसकी कृति ( १२:५५० x १२:५८० }= ७९२५५११५.६४०० योजन हुई। इसको ६ से गुणित कर जीवा की कृति में जोड़ने से धनुष की कृति होती है। यथा :- ३१२६.११४५६४००४=११५.188१८४०० इसमें जीवा की कृति जोड़ने पर ( २३१५११७८ 600 + 3१७४४१४६८५१०० }="५.३00 ४११८४००० हुआ, इसका वर्गमूल २७५६° है। इसको अपने ही भागहार ( १९) से भाग देने पर १२३७६५१६ योजन निपटानल के चाप का प्रमाण होता है। अथैवमानीतयोश्चापयोः किं कर्तव्यमित्यत्राह हरिगिरिधणुसेसद्धं पास जो सत्तसगतितेसीदी । हरिवस्से णिसहधण अहस्सगतीसारं च ।। ३९३ ।। हरिगिरिधनुः शेपा पाश्वभुज: सप्तसप्तत्रित्र्यशीतिः । हरिवर्षे निषधधनुः मष्टषट् सप्तत्रिशद्वादश च ॥ ३९३ ।। हरि। हरिक्षेत्रधनुः ८३३७७,६ निषगिरिधनुषि १२३७६८१६ शेषिते ४.३६१: शे. सति सवाशावेक १ पपनीया| कृत्य २०१६५ शेषं चार्षीकृरव , अस्मिन्नएमीताध समस्यीकल्य र अन्योन्यं संयोज्य ६ तबप्पपवत्यं । इद' किञ्चिन्यूमं अगरणयिस्वा एकयोजनं कृत्वा हरिगिरिषनुश्शेषाः २०१५ संयोजिते २०१६६ सति मिषभस्य पार्वभुजो भवति । इवानी हरिगिरिधनुषोः सिबाभुमारयति-सप्तसत त्रिपोलियोजनानि ६३३७७ हरिवषक्षेत्रे धनुः निषधपर्वते धनुः मषट्सप्तनिशद्वावश च गेजनामि १२३७६८ ॥ ३६३ ॥ इस प्रकार प्राप्त किये हुए हरिक्षेत्र और निषधाचल के चाप फा क्या करना है ? उसे कहते हैं : १ पत्र (२०)।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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