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त्रिलोकसार
गाथा ३८-३९-४० १० जबम पसंख्यातासंख्यात:-आवली जो अघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण है, उसकी कृति ( वर्ग ) करने पर जघन्य असंख्यातासंच्यात का प्रमाण प्राप्त होता है।
११ मध्यम पसंख्यातासंख्यात:-जना द्वारयातामात रे एनः म हारादि को प्राप्त तथा उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात से एक अंक हीन तक के जितने विकल्प हैं, वे सत्र मध्यम असंख्यातासे झ्यात हैं।
१२ उ मसंख्यातासंख्यात :-जघन्यपरोतानन्त में से एक अंक कम कर देने पर उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है। १३ जघन्यपरीतानन्त का स्वरूप :
अबरे सलामविरलणदिज्जे विदियं तु विरलिदण तहिं । दिज्नं दाऊण इदे सलामदो 'रूवमबणिज्ज ।। ३८ ।। तत्युप्पण्णं विरलिय तमेव दाऊण संगुणं किया । अषणय पुणरवि रूवं पुचिल्लसलागरासीदो ।। ३९ ।। एवं सलागरासिं णिहाविय तत्थतणमहारासिं । किच्चा तिप्पडि विरलणदिजादी कुणदि पुच्वं च ।। ४० ॥ अवरे शलाकाविरलनदेये द्वितीय तु विरलय्य तस्मिन् । देयं दत्त्वा हते शलाकात: रूपमपनतव्यम् ॥ ३८ ॥ नत्रोत्पन्न बिरलग्य तदेव दत्वा संगुणं कृत्वा । अपनयेत् पुनरपि रूप पूर्वतनशलाकाराशितः ॥ ३९ ।। एवं शलाकाराशि निष्ठाप्य ततममहाराशिम् ।
कृत्वा त्रिःप्रति विरल नदेयादि करोति पूर्व व ॥ ४० ॥ प्रवरे। शिकवारासंख्यातजधन्ये शलाकाविरलनवीयमामरूपेण त्रिषा कृते तत्र द्वितीय विरलप्य तस्मिन् विरलिले देयं वस्वा अन्योन्यहमिति मालाकाराशित रूपमयतव्यम् ॥ ८॥
तस्थुप्परणं। समान्योन्याभ्यास्तं विरलय्य तदेव दत्वा संगुणं कृत्वा प्रपनयेत् पुनरपि रूपं पूर्वसनालाकाराशितः ॥ ३६॥
एवं सला । एवं शलाकाराशि मिष्ठाप्य तत्रतनान्योन्याभ्यस्तमहाशि वा विप्रतिबिरसन. देमावि पूर्वमिव शलाकात्रयनिष्ठापनं कुर्यात् ।। ४० ।। .
गाथार्य :-जघन्य असंख्यातासंख्यात को शलाका. विरलन और देय रूप से स्थापन कर दूसरी विरलन राशि का बिरल न कर प्रत्येक एक एक अंक पर देय राशि देकर परस्पर गुणा करना, और शलाका राशि में से एक अंक घटा देना चाहिये। उपयुक्त देय राशि का परस्पर गुणा करने में
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रुवमवणेज्ज (ब.)।