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________________ लोकसामान्याधिकार ४३ उत्पन्न हुई महाराशिका विरलन कर प्रत्येक अङ्क पर उसी को देय देना, और परस्पर गुणा कर शलाका राशि में से एक अङ्क घटा देना चाहिये । इस प्रकार शलाका राशि को समाप्त करने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पूर्वोक्त प्रकार विरलन, देय और शलाका के रूप में तीन प्रकार स्थापन करना चाहिये ।। ३८, ३६४० ॥ विशेषार्थ :- जघन्य असंख्याता संख्यान कोशलका, विरलन और देय राशि रूप से तीन जगह स्थापन करना चाहिये। विरलन राशि का एक एक अंक विरलन कर देय राशि उस प्रत्येक अंक के प्रति देव देकर परस्पर गुग्गा करने के बाद वालाका राशि में से एक घटा देना चाहिये । परस्पर के गुणन में उपन्न हुई राशि का पुनः विरलन कर उसी प्रकार देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से दूसरी बार एक अंक और घटा देना चाहिये । परस्पर के गुरगन से प्राप्त हुये लब्धको पुनः विरलन कर उसी को देय देकर परस्पर गुणा करने के बाद शलाका राशि में से तीसरी बार एक अंक घटा देना चाहिये। इसी प्रकार पुनः पुनः विरलन, देय, गुणन और ऋण रूप क्रिया तब तक करना चाहिये जब तक कि शलाका राशि समाप्त न हो जाय । ( यह एक बार शलाका राशि की समाप्ति हुई ) इस प्रथम शलाका राशि के समाप्त हो जाने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पुनः पूर्वोक्त प्रकार से चालाका विरलन एवं देय रूप से स्थापन करना चाहिये, तथा इस महाराशि का विरलन, देय, गुलन और ऋण रूप प्रक्रिया को पुनः पुनः तब तक करना चाहिये जब तक कि एक एक अंक घटाते घटाते शलाका रूप महाराशि की समाप्ति न हो जाय। (यह द्वितीयचार शलाका राशि की समाप्ति हुई ) इम द्वितीय शलाका राशि के समाप्त होने पर जो महाराशि उत्पन्न हो उसे पुनः जलाका विरलन और देय रूप से स्थापित कर तृतीयार उपर्युक्त विरलनादि क्रिया को तब तक करना जब तक कि एक एक अंक घटाते घटाते महाराशि स्वरूप शलकाराशि की परिसमाप्ति न हो जाय। ( यह तृतीय वार शलाकाराणि की समाप्ति हुई ) उपयुक्त समस्त क्रिया को गलाकायनिष्ठापन ( ममाप्ति । भी कहते हैं । एवं विदियमलागे तदियसलागे च णिहिदे तत्थ गाथा : ४१ से ४५ जं मज्झासंखेज्जं तहिमेदे पक्विवेदव्वा ।। ४१ ॥ धम्मम्मि मिजीवमलोगागासम्पदेसपतेया । तत्तो असंखगुणिदा पदिडिदा दप्पि रासीओ ||४२ ॥ तं कतिप्पडिगमिं विरलादि करिय पढमविदियसलं । तदियं च परिसमाणिय पुच् चा तत्थ दायन्वा ॥ ४३ ॥ कम्प ठिदिबंधपच्चपरसंबंध ज्वसिदा असंखगुणा । जोक्स विभागपच्छिदा विदियपकखेवा ॥ ४४ ॥ तं रासि पुन्यं वा तिप्पट विश्लादिकरणमेत्थ किदे । भवरपरिचमणं तं रूऊणम संख संखय रं ।। ४५ ।।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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