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________________ लोकसामान्याविकार ६५ विशेषार्थ :- जघन्य लब्ध्यक्षर श्रमज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंसे अनन्त स्थान आगे जाकर तिर्यगति में असंयत सम्यग्दृष्टि जीव के जघन्य क्षायिक सम्यक्त्वधिके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणकी प्राप्ति होती है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानकी वर्गशलाकाओका प्रमाण उत्पन्न होता है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर उसी केवलज्ञानके अर्थच्छेदोंका प्रमाण प्राप्त होता है। उससे अनन्त स्थान आगे जाकर केवलज्ञानका अनुम वर्गमूल प्राप्त होता है । गाथा ७२ इस अष्टम वर्गमूलका एकबार वर्ग करने पर केवलज्ञानका सक्षम वर्गमूल प्राप्त होता है । इसका एकवार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका षष्ठ वर्गमूल प्राप्त होता है। इस का एक बार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका पंचम वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकवार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका चतुर्थ वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकबार वर्ग करनेपर केवलज्ञानका तृतीय वर्गमूल प्राप्त होता है। इसका एकबार वर्ग करनेपर केवलमानका द्वितीय वर्गमूल प्राप्त होता है, और इसका एकबार वर्ग करने पर केवलज्ञानका प्रथम वर्गमूल उत्पन्न होता है । विवक्षित राशि वर्गमूलको प्रथम वर्गमूल कहते हैं । प्रथम वर्गमूलके वर्गमूलको द्वितीय और द्वितीय के वर्गमूलक तृतीय वर्गमूल कहते हैं। इसीप्रकार आगे आगे कहना चाहिये। जैसे :- एकट्टोका प्रथम मूल बादाल, द्वितीयमूल पराडी, तृतीयमूल २५६, चतुर्थ मूल १६, पंचममूल ४ और षष्टमूल दो है । समादिमूलबग्गे केवलमंतं पमाणजे मिणं । वरखयल द्विणामं सगवगमला हवे ठाणं || ७२ ॥ सकृदादिलवर्गे केवलमंतं प्रमाणजेष्ठमिदम् । वरक्षायिकलब्धिनाम स्वकवर्गशला भवेत् स्थानम् ॥७२॥ सह। सकृदेकवारं तयाविमूलस्य वर्गे गृहोते केवलज्ञानस्याविभागप्रतिदेशः । एतावदेव विधारायामन्तं इदमेव प्रमााज्येष्ठं, एस वेबोरकष्ट, आधिकलवित्रताम । प्रस्याः द्विरूपवर्गधारायाः स्थानं तस्य केवलज्ञानस्य वर्गशलाकाप्रमाणं भवेत् ॥७२॥ गावार्थ:केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूलका एकबार वर्ग करनेपर केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण प्राप्त होता है। इतना मात्र ही द्विरूप वगंधाराका अन्तिमस्थान है। यही उत्कृष्ट प्रमाण हैं । इसीका नाम उत्कृष्ट क्षायिकलब्धि है । केवलज्ञानकी वर्गशलाकाओं का जितना प्रमाण है,. उतना ही प्रमाण द्विरूप वगंधाराके समस्त स्थानों का है || ७२ ॥ विशेषार्थ : - ( सातों गाथाओं का ) द्विरूपवगंवाराका सर्व जघन्य और प्रथमस्थान २ का वर्ग. चार है । तथा सबसे अन्तिम और उत्कृष्ट स्थान केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण है। इस धाराके मध्यम स्थानों में निम्नलिखित राशियों प्राप्त होती हैं ::- १ जघन्यपरीतासंख्यात २ जघन्य
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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