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________________ गाथा: ५०-७१ ६४ त्रिलोकसार का प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है। इस प्रथम वर्गमूल का एक बार वर्ग करने से आकाशश्रेणी उत्पन्न होती है और आकाशश्रेणी का एक बार वर्ग करने से प्रतराकार उत्पन्न होता है। धम्माधम्मागुरुलधु इगिजीवागुरुलघुस्स होति सदो । सुहमणि अपूण्णणाणे बरे अविभागपरिछेदा ।। ७० ॥ धर्माधर्मागुरुल घोरेकजीवागुरुलधोः भवन्ति ततः । सूक्ष्म निगोवापूर्ण जाने अवर अविभागप्रतिच्छेदाः ।। ७० ॥ बम्माधम्म । ततोनन्तस्थानानि गत्वा धर्माधर्मागुरुलधुगुणाविभागप्रतिवाः, ततोनन्तस्थामानि गत्वा एकनीबागुवलपुरणाविभागप्रतिम्छेवा भवनिम, सतोतन्तस्थानानि वा सूक्ष्मनियोगमध्यपर्याप्तमपन्यमानाविभागप्रतिच्छेवा उत्पद्यन्ते ॥ ७० ॥ गाथा:-प्रतराकाश से उत्तरोत्तर अनन्त स्थान आगे आगे जाकर कमशः धर्म अधर्म न्य के अगुरुलघुगुण के अविभागप्रतिच्छेद और एकजीव के अगुमलघुगुण के अविभाग प्रतिच्छेदों की प्राप्ति होती है । पुनः अनन्त स्थान आगे जाकर सूक्ष्मनि गोद लमध्यपर्याप्तक जीव के जघन्य पर्याय नामक श्र तज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है ।। ७० ।। विशेषार्ष:--प्रतराकाश से अनन्त स्थान आगे जाकर धर्म अधर्म द्रव्य के अगुमलघुगुणके अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है। उससे अनन्तस्थान आगे जाकर एक जीव के अगुरुलधुगुण के अविभागप्रतिच्छेदों की उत्पत्ति होती है। उसमें अनन्न स्थान आगे जाकर सूक्ष्मनिगौदलाध्यपर्याप्तक जीव के पर्यायनामा जघन्य लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों का प्रमाण उत्पन्न होता है। भवरा खाइयलद्धी वग्गसलागा तदो सगचिदी । महसमलप्पणतुरियं तदियं विदियादि मूलं च ।। ७१॥ अवरा क्षायिकलब्धिः वर्गशलाका ततः स्वकाच्छि दिः । · अष्टसप्तषट्पञ्चतुरीयं तृतीयं द्वितीयादिमूलं च ॥ १ ॥ प्रवरा। ततोऽनम्तस्थानानि गवा तिग्गग्यसंयतसम्पाटो बघण्यक्षायिकसम्परवापलम्बे विभागप्रतिच्छेवाः ततोऽनन्तस्पानानि गरवा गंशलाकाः ततोऽनन्तापामानि गया अपवेदाः, ततोऽनन्तस्थानानि गरमा मममूलं, तस्मिन्नेवारं पगिते सप्तममूलं, तस्मिनोकबार गिते षष्टमसं, तस्मिन्मेकवारं वर्णिते पजाममूल, तस्मिन्नेवार गिते चतुर्षमूल, सस्मिन्नेकवारं गणिते कृतोपमूल, तस्मिनेकवारं गिते द्वितीयमूल, तस्मिन्नेकवारं वगिते प्रपममूल मोरपद्यते ॥१॥ गावार्थ :--तथा उससे अनन्त स्थान आगे जाकर जथन्यक्षायिकलब्धि की वर्गशलाकाए', मर्षच्छेद, आठवा, सातवाँ, छठा, पांचवा, बौथा, तीसरा, दूसरा और प्रथम वर्गमूल प्राप्त होता है ।।७॥ १ आग्रिकसम्यक्त्वरूपलव्धे। (ब०, ५० ) रूपलब्धिः जघन्मलब्धिः ( टि.)।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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