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________________ त्रिलोकसार का प्रमाण ६३० गगन खण्ड स्वरूप है। इसी प्रकार जघन्य प्रत्येक के १००५, १००५ गगन खण्ड है । मध्यम संज्ञा वाले २०१०, २०१० खण्ड और यह पगन खण्ड होते हैं । अथ तानि जघन्यमध्यमोत्कृष्टनक्षत्राणि गाथाद्वयेनाह - ३५८ पाचा : ३६६-४०० संज्ञा वाले ६ ( वह ) नक्षत्रों में से पन्द्रह ( १५ ) नक्षत्रों में प्रत्येक के नक्षत्रों में प्रत्येक के ३०१५, ३०१५ सदसि भरणी अदा सादि असिलेस्स जेडुमवर वरा । रोहिणि विसा पुणन्वसु विचरा मज्झिमा सेसा ।। ३९९ ।। शतभिषा भरणी आदर्श स्वातिः आश्लेषा ज्येष्ठा अश्राणि वराणि । रोहिणी विशाखा पुनसंसुः त्र्युत्तराः मध्यमा शेषाः ॥ ३६६ ॥ सदभित । शतभिषक् शतविशाखेत्यर्थः भरणी पार्वा स्वातिः पाश्लेवा ज्येष्ठा इत्यवर नक्षत्राणि ६ राशि २ रोहिणी विशाला पुनर्वसु । त्रिउतरा ३ जसराफाल्गुनी उतराषाढ़ा उत्तर भाजपश्यर्थः शेषा १५ तारा मध्यमाः ॥ ३६९ ॥ दो गाथाओं द्वारा जघन्य मध्यम और उत्कृष्ट नक्षत्रों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ :- शतभिष, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, माधुपा और ज्येष्ठा ये ६ जघन्य नक्षत्र हैं । रोहिणी, विशाखा पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तरापाड़ा और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । तथा शेष १५ नक्षत्र मध्यम है ॥ ३६६ ॥ :1 विशेषार्थ :- शतभिषक, भरणी, आर्दा, स्वाति, आश्रूषा और ज्येष्टा में छह जघन्य नक्षत्र हैं। रोहिणी, विशाखा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा और उत्तराभाद्रपद ये ६ नक्षत्र उत्कृष्ट हैं। शेष १५ मध्यम हैं । अथ ताः शेषाः का इत्याह सिणिकित्तियमिसिर पुस्समहाहत्थ चिच मणुराहा । पुव्वतिय मूल सबणासघणिठ्ठा रेवदी य मज्झिमया ॥ ४०० ॥ विनी कृतिका मृगशीर्षा पुष्यः मघा हस्तः चित्रा अनुराषा । पूर्वत्रिक मुलं श्रवणं सधनिष्ठा रेवती च मध्यमाः ॥ ४०० ॥ परिणि । पश्चिमी कृत्तिका मृगशीर्षा पुष्यः भधा हस्त: चित्रा अनुराधा पूर्वत्रिका
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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