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________________ १९४ त्रिलोकसा पाप।। १९९-२०० .. पापाणः --चतुर्थ भ्रान्त पटल को उत्कृष्टाय एक सागर के दसवें भाग प्रमाण है । अर्थात् मागर है, तथा अपने अपने अन्तिम इन्द्रक की उत्कृष्टायु प्रमशः एक सागर; तीन सागर. मान सागर,दशसागर, मन सागर, बाईस सागर और तंतीस सागरोपम प्रमागाहै। आदि प्रमाणको अन्नप्रमाण में से पटाने पर जो हो हो एक माम गाभाग देने पर प्रति पटल का हानि चय प्राप्त होता है । ऊपर के पटलों की जो उस्कृष्ट आयु है, उसमें एक समय अधिक करने पर वही नीचे के पटलों की जघन्यायु बन जाती है ।।१६६-२००। विशेषाः - प्रथम पटल के चतुर्थ भ्रान्त पटल की सागर आयु से प्रारम्भ करने पर आदि का प्रमाण क्रमशः १, ३, ७, १०, १७, और २२ सागर है, तथा अन्त का प्रमाण कमशः १, ३, ७, १०, १७, २२, और ३३ सागरोपम है। अन्त प्रमाण में से आदि प्रमापा घटाने पर क्रमशः । २, ४, ३, ४, ५, और ११ सागरोपम दोष रहते है। पूर्व मे नान पटली को पायु का प्रमाण कह चुके हैं तथा चतृयं पटल की भी आयु कह चुके हैं, अत: प्रथम पृथ्वी के तेरह पटलों में से चार पटल कम कर देने पर ( १३-४) ९ प्राप्त होता है । गच्छ का प्रमाण श्रमशः ३, ११, ६, ७, ५, ३ और १ है । जब कि ९ पटलों पर सागरोपम की हानि होती है, तब १ पटल पर कितनी हानि होगी? इस प्रकार सभी पटलों का राशिक निकालने से कमशः .. और हानि घय प्राप्त होता है । इसे पूर्व पूर्व पटलों की आयु में मोड़ने में मागे आगे के पटलों की उत्कृष्ट आयु प्राप्त होती जाती है । जैसे :- चतुर्थ भ्रान्त पटल की उकृष्टायु के सागर है, इसमें पर चय जाड़ने से (+6) = सागर उद्घान्त इन्द्र क को उत्कृष्ट आयु प्राप्त हुई । इसी प्रकार ६, संभ्रात ( + ) = सागर, ७ असंभ्रान्त .८ विभ्रान्त , ९ त्रस्त १. असित ११, ११ व कात १२ अवक्रांत और १३ विक्रांत इन्द्रक की उत्कृष्टायु २९ अर्थात् १ सागर प्रमाण है। द्वितीय शर्करा प्रभा पृथ्वी का हानि चय* मागर है अतः तेरहवें विक्रांत इन्द्रक को १ सागर वायु में मिलाने से (+ ) अर्थात् १ सागर १, सतक इन्द्रक की उत्कृष्टायु प्राप्त हुई। इसी प्रकार २, स्तनक ( 1 ) सागर, ३ वनक, ४ मनक , ५ खडा ३५, ६ खडिका १६, ७ जिह्वा २७ ८ जिह्विक ९ लौकिक ३१, १० लोलवास ३२ और ११ स्तनलोला । अर्थात ३ सागर प्रमाण उत्तष्टायु है। तृतीय बालुका प्रभा पृथ्वी का चप सागर है । इसे ३ सागर में जोड़ने से (A+) AR इन्द्रक की २ तपित ( +) -१, ३ तपन ३, ४ तापन , ५ निदाघ , ६ बज्वलित १,७ प्रज्वलित ५५, ८ संज्वलित , और । संप्रज्वलित है, अर्थात ७ सागर उत्कृष्टायु है।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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