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________________ पाथा : १०० नरतियंग्लोकाधिकार 4 ग्था छवण समुद्र की शिक्षा के अन्तिम पांच हजार योजनों को पन्द्रह से भाजित करने पर लवण समुद्र की शिक्षा में प्रतिदिन पलवृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है ।। ८ ॥ विशेषार्थ:-उन पातालों में से दिग्गत पातालों के मध्यम त्रिभाष को १५ से भाजित करने पर ( ३३३३३३ )=२२२२६ योजन, विविग्नत पातालों के मध्यम विभाग को भाजित करने पर ( ३३३३) = १२२१ योजन और अन्तर दिग्गत पातालों के मध्यम विभाग को भाजित करने पर ( ३३३) २२१ योजन जल और वायु की वृद्धि का प्रमाण प्राप्त होता है । अर्थात् कृष्ण पक्ष में बल की मौर शुक्ल पक्ष में वायु को पति होती : समा गालातों मध्यम विभागों में नीचे पवन बोर ऊपर जल है अत: कृष्ण पक्ष में प्रत्येक दिन पवन के स्थान पर बल होता जाता है और शुक्ल पक्ष में प्रत्येक दिन जल के स्थान पर पवन होता जाता है। लवण समुद्र में सम भूमि से ऊपर जो अल राशि है उसका नाम शिवा है। इस शिण के अन्तिम ५००० योजनों को १५ से भाजित करने पर {१२)-३३३३ योजन प्राप्त हुआ, यही लवण समुद्र में प्रतिदिन जल वृद्धि का प्रमाण है। लवण समुद्र में समभूमि से ११... योजन ऊंचा जन तो स्वाभाविक ही है, इसके ऊपर शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन ३३३१ योजन की जलवृद्धि होती हुई पूर्णिमा को जलराशि को सम्पूर्ण ऊँचाई १६००० योजन हो जाती है तथा कृष्ण पक्ष में इसी क्रम से घटती हुई अमावस्या को जल की ऊँचाई मात्र ११.०० योजन रह जाती है । यथा:-जबकि १५ दिनों में हानिचय का प्रमाण ३३३३३३ योजन है तब एक दिन में हानिचय का क्या प्रमाण होगा? इस प्रकार राशिक कर समच्छेद विधान से अंश और प्रशी को मिला देने पर 10 योजन प्राप्त हुए । इस ३ हार को १५ हार मे गुणित करने १९४५ हुए । इसका ( BARE ) भाग देने पर २२२२ योजन प्राप्त हुए और ३ अवशेष रहे। इनका ५ से अपवर्तन करने पर २२२२४ योअन मध्यम तृतीय भाग में जल एवं पवन को हानि एवं वृद्धि का प्रमागा प्राप्त हुआ। यह दिग्गत पातालों को हानि चय का प्रमाण है । इसी विधान से लवण ममुद्र की शिखा का तथा विदिग्गत एवं अन्तरदिग्गत पातालों में क्रम से जल, वायु एवं शिखा को हानि वृद्धि का प्रमाण प्राप्त कर लेना चाहिए। एवं हानिवृद्धियुक्तस्य लवणसमुद्रस्य भूमुखव्यासावाह पुण्णदिणे अमवासे सोलक्कारससहम जलउदयो । . चासं सहभूमीए दसयसहस्सा य वेलक्खा ।। ९.. ।। पूर्ण दिने अमावास्यायां षोसर्शकादशसहस्र जलोदयः । व्यास: मुखभूम्योः दशसहस्र' च विलक्ष्यं ॥ ९०० ॥ पृथए । परिणमादिने पमावास्या छ पचासंख्यं षोडशसहल १६... मेकाशसहस्त्रच
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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