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________________ चिलीकसार गाथा : ६४ अादी । प्रकृतिमातृकचारायाः माविः केवमानस्य प्रथममूल अपसहित अन्तस्तु केबलनानं मध्याममेकविध तस्याः स्यामं स्वमूलोमकेवलनानमा । अंकसंघका ६.७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६ ॥१३॥ ९. अवर्गमातक धारा का स्वरूप :-- गाथा:-इस अवर्गमातृक धारा का प्रथम स्थान केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल से एक अङ्क अधिक है. अन्तिमस्थान केवलज्ञान है और मध्यम स्थान अनेक प्रकार के हैं। इस धारा के समस्त स्थान केवलज्ञान के प्रथमवर्गमूल से रहित केवलज्ञान प्रमाण है ॥ ६३ ॥ विशेषार्थ :- जिन संख्याओं का वर्ग करने पर वर्गसंख्या का प्रमाण केवलज्ञान से आगे निकल जाता है, वे सब सख्याएं इस अवर्गमातृकधारा में ग्रहण की गई है। इस धारा का प्रथम स्थान एक अधिक केवलशान का प्रथमवर्गमूल है। अन्तिम स्थान केवलज्ञान है, तथा मध्यम स्थान अनेक प्रकार के हैं। इस धारा के समस्त स्थान केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल से रहित केवलज्ञान प्रमाण हैं । असे :--२५७, २५८, २५९, २६०................. ६५५३४, ६५५३५ और अन्तिम स्थान ६५५३६ है । इम धारा में केवलज्ञान के अर्धच्छेद, वर्गशलाका और वर्गमूल आदि नहीं पाये जाते हैं। अथ धनमातृकधारामाह-- घणमाउगम्स सव्वाधारं का सम्वपक्लिमो गसी । आसपणबिंदमूलं तमेव ठाणं विजाणाहि ।।६४ ॥ बनमातृकायाः सर्वकधारा इव मर्व पश्चिमी राशिः। आसन्नवृन्दमूलं तदेव स्थान विजानीहि ।। ६४ ॥ घणमाउ। धनमातृकायाः सर्वधाराबत प्रक्रिया, मंकसंही प्रयत-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, प्रावि : ४.1 प्रर्य तु विशेष: सर्वपश्चिमो राशिः। क इति धेत केवलज्ञानस्य ६५-पासनधन ६४००० प्रथममूलं ४० तदेव तस्याः धममातृकापा: स्थानमिति नामोहि ॥ ६४ ।। १०. धनमानकधारा का स्वरूप :-- नापार्थ :--धनमातृकंधारा की स्थानादि सम्बन्धी प्रक्रिया सर्वधारा सदृश होती है। इसमें इतनी ही विशेषता है कि इस धारा का अन्तिम स्थान केवलज्ञान के आसन्नघन के घनमूल प्रमाण है; अतः इस धारा के स्थान भी केवलज्ञान के आसन्नधन के घनमूल प्रमाण ही है।। ६४ ।। विशेषार्थ:-जो संस्थाएं धन उत्पन्न करने में समर्षे हैं उन्हें धनमातृक कहते हैं । केवलज्ञान के आसन्नघनमूल पर्यन्त तो सभी संख्याओं का धन हो सकता है किन्तु यदि इसमें एक अंक अधिक का भी वन किया जाएगा तो केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक प्रमाण हो जाएगा। इसलिए एक को आदि लेकर केवलज्ञान के आसन्नघनमूल पर्यन्त इस धाय के स्थान होते हैं । बंसे-१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८,
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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