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________________ ८६ प्रयोक्तानां वाराणां निगमनमाह त्रिलोकसाथ वारुवनगाणं धाराणं दरिसिदं दिसामेयं । बित्थरदो वित्थररुइ सिस्सा जाणंतु परियम्मे ||९१ ।। परिकर्मणि ॥ ९१ ॥ व्यवहारोपग्ानां धाराणां दर्शितं दिशामात्रम् । विस्तरतो विस्तरम् चिशिष्या जानन्तु बहाद। व्यवहारोपयोग्यानां बाराला विग्मार्थ दर्शितं परिकर्मणि जानन्तु ॥२१॥ विस्तरतो विस्तरतविशिष्या बृहद्धा इति संख्याप्रमाणं समाप्तम् । उपयुक्त चौदह धाराओं के प्रसङ्ग का उपसंहार करते हुए कहते हैं — गाया : ९१-९२ गावार्थ:- संख्या व्यवहार में उपयोगी उपयुक्त चौदह धाराओं के स्वरूप का यहाँ निर्देश मात्र किया गया है । विस्तार से जानने में रुचि रखने वाले शिष्यों को इनका विस्तृत स्वरूप 'वृहदधारापरिकर्म' शाख से जानना चाहिए ॥ ६१ ॥ विशेषार्थ :- उपयुक्त चौदह धाराएँ संख्या व्यवहार के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। जैसे कोई अंगुलि से पूर्वादि दिशा का दिग्दर्शन कराता है, उसी प्रकार इन चौदह धाराओं के स्वरूप का यहाँ संकेत मात्र किया गया है । विस्तार से जानने की इच्छा रखने वाले शिष्यों को इनका व्यापक वर्णन 'वृहदारापरिकर्म' नामक ग्रंथ से जानना चाहिए । , संख्या -प्रमाण प्रसङ्ग समाप्त हुआ । अथ संख्याप्रमाणविशेषाश्चतुर्दशधाराः सप्रपत्र प्रदश्यं इदानीं प्रकृतमुपमाप्रमाणाष्ट निरूपयति पल्लो सायर सूई पदरो य घणंगुलो य जगखेडी | लोपपदरो य लोगो उपमपमा एवमदुविधा ||१२|| पश्यं सागरः सूत्री प्ररं च घनांगुलं च जगणी । लोकप्रतरश्च लोकः उपमाप्रमा एवमष्टविधा ॥९२॥ पहले । परमं सागर: सुभ्यंगुजं प्रतरांगुलं धर्मातुलं च जगच्छ्र े रिणः, जगत्प्रतरश्च घन लोक इत्येवमुपमाप्रमाणमकृवि स्यात् ॥१२॥ संख्या प्रमाण के विशेषभूत चौदह धाराओं का विस्तारपूर्वक वर्णन कर अब विवक्षित उपमाप्रमाण के आठ भेदों का निरूपण करते हैं। —
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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