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________________ ९० लोक सामान्याधिकार के चतुर्थ और प्रथम वर्गमूल के परस्पर गुग्गन से प्राप्त हुए लब्ध के सहश है। जैसे :- केवलज्ञान ६५५३६ के चतुर्थ वर्गमूल २ का धन ८ और इसका अपना वर्ग ६४ है, अतः ६४ को से गुणित करने पर ५१२ की उत्पत्ति होती है। जो केवलज्ञान ६५५३६ के प्रथमवर्गमूळ २५६ को इसी के चतुर्थं वर्गमूल २ से गुणित करने पर लब्ध प्राप्ताङ्क ( २५६ x २ ) ५१२ के सदृश है। यही ५१२ घनाघन धारा का अन्तिम स्थान है | = प्रत्येषां चरमत्वं कथं न सम्भवतीति चेत् - चरिमादिचक्करूप य घणाघणा एत्थ क्षेत्र संभवदि । तुम्हा ठाणं हेदू भणिदो वाला || ९० ॥ EX चरमादिचतुष्कस्य च घनाघना अत्र नैव सम्भवन्ति । हेतुः भरिणतः तस्मात् स्थानं चतुर्होनवर्गशलम् ||१०|| खरिमा केवलज्ञानाश्चतु स्थानानां ६५ - २५६, १६. ४, घनाघना पत्र द्विपधनाधनबाराय मेव सम्भवन्ति । कुतः ? केवलज्ञानव्यतिक्रमस इति हेतुभंगितस्तस्मात् स्थानं केवलज्ञानस्य तुहीन वर्गशलाकाप्रमाणं स्यात् ॥०॥ अन्य स्थानों में चरमपना क्यों सम्भव नहीं है ? इसका समाधान : गाथार्थ :- केवलज्ञानके अन्तिम चार स्थानों का बनावन इम घनावन धारा में सम्भव नहीं । इसका कारण पहिले, कहा जा चुका है। अतः द्विरूपघनाघन घारा के समस्त स्थानों का प्रमाण चार कम केवलज्ञान की वर्गालाकाओं के बराबर है ॥९५॥ 1 विशेषार्थ :- केवलज्ञानको आदि करके नीचे के चार स्थान अर्थात् प्रथमवर्गमूल द्वितीय वर्ग मूल और तृतीय वर्गमूल तथा अन्तिम स्थान स्वयं केवलज्ञान। इन चारों स्थानों का घनाघन इस घनाघनधारा में सम्भव नहीं है। कारण कि इन चारों के घनाघन का प्रमाण केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक हो जाएगा। जैसे :- केवलज्ञान का प्रमाण ६५५३६ है । इसका प्रथम वर्गमूल २५६ दूसरा aiमूल १६ और तीसरा वर्गमूल ४ है । ये चारों स्थान द्विरूपगंधारा में हैं । अतः द्विरूपवगंधारा के - ४ १६ २५६ ६५५३६ ये वारं स्थान हैं। द्विरूपघनावन धारा के २६२१४४ १६९ २५६ ३ ६५५३६९ इन चारों स्थानों के घनाघन की प्रसारण केवलज्ञान के प्रमाण से अधिक है। इसीलिए केवलज्ञान के चतुर्थ वर्गमूल के घन का इसी चतुर्थ वर्गमूल के घन के वर्ग से गुरणा (६४४ ८ ) करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसी (५१२) में घनाघन धारा का अमिता सम्भव है, अन्य स्थानों में नहीं, और इसीलिये घनाघन धारा के समस्त स्थानों का प्रमाण भी केवलज्ञान की चार कम बर्गशलाकाओं के बराबर है ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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