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पिलोकसा
बाषा:७१-६७७
बइ चउगोउरसालं णदिमिरिणगवेढि सपणसयगाम । रमणमदारिदेलापला गवारिद्वियं कमसो ।। ६७६ ।। वृतः चतुर्गोपुरशालः नदोगिरिनगवेध' सपश्चातग्राम।
रत्नपदसिम्बुवेलावलयितः नगोपरि स्थितं क्रमशः ।। ६७६ ॥ वह। वृस्या वृतो प्रामः धतुर्गोपुरशालयुतं नगरं पधादिष्ट खेत नगमित खर्वकं पञ्चशतमामयुतं मडंबं रहमानो स्पानं पप्तनं नहीवेलितो द्रोणः बलपिबेलाबलयितः सम्बाहा मगोपरि स्थिता दुर्गाटवो मशः ॥ ६७६ ॥
गायार्थ :-जो वृत्ति-बाड़, चार दरवाजों से युक्त कोट, नदी, पर्वत और पर्वतों से वेष्ठित होते हैं उन्हें कम से ग्राम, नगर, पेट और सवंड कहते हैं। पांच सौ पामों से संयुक्त को महंव, रत्नादि प्राप्त होने वाले स्थान को पत्तन, नदी वेष्ठित को द्रोण, समुद्र वेला से वेष्ठित को संवाह तथा जो पर्वतों पर स्थित होते हैं उन्हें दुर्गाटवी कहते हैं ॥ ६७६ ।।
विशेषार्य :-जो चारों ओर कांटों की वाड़ से वेधित होता है, उसे ग्राम कहते हैं। चार दरवाजों से युक्त कोट से वेष्ठित क्षेत्र को नगर कहते हैं । जो नदी और पवंत दोनों से वैष्ठित होते हैं, बे खेट हैं । पर्वत से वेष्ठित को खवंड कहते हैं । जो ५.. ग्रामों से संयुक्त हैं, वे मईय है। जहाँ रत्न मादि वस्तुओं की निष्पत्ति होती है, वे पत्तन कहलाते हैं। नदी से वेष्ठिव को द्रोण और समुद्र की बेला से वेष्ठित को संवाह कहते हैं। पर्वत के ऊपर जो बने हुए हैं. उन्हें दुटिवी कहते हैं । अथ विदेहदेशस्योपसमुद्राभ्यन्तरदीपस्वरूपमाह
छप्पण्णंतरदीवा छब्बीससहस्स रयणआयरया । स्यणाण कुविखवासा सत्चसय उवसमुद्दम्हि ।। ६७७ ।। षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः पद्दिशसहस्र रत्नाकराः।
रत्नानां कुक्षिवासाः सप्तशतानि उपसमुद्रे ॥ ६७७ ।। अप्पारणं । विवेहवेशस्योपसमुद्रषट्पश्चाका ५६ पारतीपा: वविशतिसहस्र २६००० स्नाहरा: रस्नानां पविक्रयस्पान भूतकुक्षिवासाः सप्तशतानि ७०० भवन्ति ॥ ७ ॥
विदेह देश स्थित उपसमुद्रों के अभ्यन्तर द्वीपों का स्वरूप कहते हैं :
पापा:--[ एक एक विदेह देश में एक एक उपसमुद्र हैं. उन पर एक एक टापू है। वहीं छप्पन अन्तरदीप, छब्बीस हजार रत्नाकर ओर रलाकरों के सात सौ फुक्षि वास हैं ।। ६७७ ॥
___ विशेषा:-प्रत्येक विदेह देश में प्रधान नगरी और महानदी के बीच स्थित आर्यस्खण्ड में एक एक उपसमुद्र है, और उस उपसमुद्र में एक एक टापू है, जिस पर ५६ अन्तरद्वीप, २६००० रत्नाकर और रत्नों के क्रय विक्रय के स्थान भूत ७०० कुक्षिवास होते हैं।