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________________ २५३ पापा: १०४-३०७ अंबू । जम्बूद्वीयः धातकीखण्डीकरवर पालियर मध्य घृतयः सौत्रवरः नन्वीश्वरवरः परुणवर: भरणा भासवर: कुण्डलवरः शङ्खवः ॥ ३०४ ज्योतिर्लोकाधिकार तो। ततो रुचकारः भुजगवरः कुशगवर काँचवरादयः । एते प्रभ्यगारषोडशद्वीपा तल उपरि प्रसंख्यातद्वीपसमुद्रान् त्यक्त्वा प्रत्यषोडसोपानाह - ततो मनः शिलाद्वीपः हरितालद्वीप: सिन्दूरवर: श्यामवरः सञ्जनकवर: हिंगुलिचवरः ॥ ३०५ ॥ हृप्प। रूप्यवरः सुवरगंवरः वज्रवरः वंदर: नागवरः भूतधरः यक्षवरः ततो देववरः प्रोस्टवर: स्वयभ्रमणो वेन्चरमः ॥ ३०६ ॥ लव लवणाम्बुधिः कालोदकजलधिः ततः स्वस्थद्वीप नामोदषयः सर्वे द्वीपसमुद्राः कियन्त इति वेत, तृतीयारसागरोपममात्रा भवन्ति ॥ ३०७ ॥ द्वीप समुद्रों के निरूपण बिना ज्योतिष्क देवों का निरूपण असम्भव है, अतः ज्योतिषी देवों के आधारभूत द्वीप समुद्रों का निरूपण चार गाथाओं द्वारा करते हैं गाथार्थ :- ( १ ) जम्बूद्वीप ( २ ) घातकी खण्ड ( ३ ) पुष्करवर ( ४ ) वारुणिवर (५) क्षीरवर ( ६ ) घृतवर ( ७ ) क्षौद्रवर (८) नन्दीश्वरवर (६) अरुपावर (१०) अरुणाभासवर (११) कुण्डलवर ( १२ ) शङ्खबर ( १३ ) रुचकवर ( १४ ) भुजगवर ( १५ ) कुशगवार को (१६) कोवर (आदि ये अभ्यन्तर के सोलह द्वीप है । इसके बाद असंख्यात द्वीप समुद्रों को छोड़ कर अन्त के १६ द्वीपों के नाम ) ( १ ) मनःशिला द्वीप ( २ ) हरिताल द्वीप (३) सिन्दूरवर (४) श्यामवर ( ५ ) अञ्जनवर (६) हिंगुलिकवर ( ७ ) मध्यवर ( ८ ) सुवर्णवर ( ९ ) वध्र्वर ( १० ) वैडुयंवर ( ११ ) नागवर (१२) भूतवर ( १३ ) यक्षवर ( १४ ) देववर ( १५ ) अहीन्द्रवर और अन्तिम (१६) स्वयम्भूरपण द्वीप है । ३०४ ।। ३०५ ।। ३०६ ।। गाथार्थ :- लवण समुद्र और कालोदक समुद्र के अतिरिक्त अन्य समुद्रों के नाम अपने अपने द्वीपों के नाम सदृश ही है। हाई उद्धार सागर का जितना प्रमाण है, उतना ही प्रमाण सर्वद्वीप समुद्रों का है ।। ३०७ || विशेषार्थ :- सर्व समुद्र एक एक द्वीप को वेष्टित किए हुए हैं। सर्व प्रथम जम्बूद्वीप को वेष्टित करने वाले समुद्र का नाम लवण समुद्र है। दूसरे घातकीखण्ड द्वीप को परिलक्षित करने वाले समुद्र का नाम कालोक समुद्र है। इसी प्रकार एक एक समुद्र एक एक द्वीप को घेरे हुए है। इन दो समुद्रों के अतिरिक्त अन्य समुद्रों के नाम द्वीपों के नाम सहता ही हैं। सर्व द्वीप समुद्रों का प्रमाण ढाई उद्धार सागर के प्रमाण बराबर है। दश कोडा फोड़ी उद्धार पल्य का एक उद्धार सागर होता है। ऐसे कई उद्धार सागर के जितने रोम है, उतनी ही द्वीप समुद्रों की संख्या का प्रमाण है । इदानीं तेषां विस्तारं संस्थानं च निरूपयति
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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