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________________ २५२ त्रिलोकसार गाथा।३.३-३०७ चंदा पुण याइच्चा गह णक्खता पइण्णतारा य । पंचविहा जोइगणा लोयंतषणोदहिं पुट्ठा ।। ३०३ ।। चन्द्राः पुनः आदित्या ग्रहा नक्षत्राणि प्रकीर्णकताराश्च ।। १श्वविधा ज्योतिर्गणा लोकान्तघनोदधि स्पृष्टवन्तः ॥ ३०३ ॥ चंचा । छायामात्रमेवार्यः ॥ ३० ॥ बिम्त्रों में स्थित ज्योतिपी देवों के भेद कहते हैं गाथार्य :-चन्द्र, सूर्य ग्रह, नक्षत्र और प्रकोणक तारा, इस प्रकार ज्योतिष देवों के समूह पांच प्रकार के हैं। ये पांचों लोक के अन्त में घनोद धिवातवलय का स्पर्श करते हैं ।। ३०३ ।। विशेषार्ष:-पूर्व पश्चिम अपेक्षा घनोदधि वातवलय पर्यन्त ज्योतिषी देवों के बिम्ब स्थित हैं। अथ द्वीपसमुद्रनिरूपण मन्तरेण ज्योतिर्गणनिरूपणासम्भवात् तदाधारद्वीपसमुद्रान गाथाचतुष्केण निरूपयति जंबूधादकिपुक्खरबारुणिखीरघदखोदवरदीयो । गंदीसररुणवरुणन्मासा वर कुडलो संखो ।। ३.४ ।। तो रुजगभुजगकुसगयकोंचबरादी मणस्सिला तचो । इरिदालदीवसिंदुरसियामगंजणयहिंगुलिया ।। ३०५ ।। रूप्पसुयण्णयबजयवेलुरिययणागभूदजक्खवरा।। तो देवाइिंदवरा सयंभुरमणो हवे चरिमो || ३०६ ।। लवणंबुद्धि कालोदयजलही तत्तो मदीवणामुबही । सम्वे अढाइज्जुदारुव हिमेतया होति ।। ३०७ ।। जम्बूधातकिपुष्करवाणिक्षीर धृतोद्रवरद्वीपाः । नन्दीश्वरामग्णाहणाभासा वराः कुण्डलः शङ्कः ॥ ३०४ ॥ ततो रुचकभुजगकुशगकौंचव रादयः मनःशिला ततः । हरितालीपसिन्दूरश्यामकाजनहिंगुलिकाः ॥ ३०५ ।। रूप्यसुवर्णकव नकवडूयंकनागभूतयक्षवराः । ततो देवाहिद्रवरौ स्वयम्भूरमणो भवेत् परमः ॥ ३०६ ।। लवणाम्बुधिः फालोदकजलधिः ततः स्वदीपनामोदधयः । सर्वे अधंतृतीयोद्धारोधिमात्रा भवन्ति ।। ३०७ ।।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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