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त्रिलोकसार
पाथा : ५२९
उस समय भ्रक भागहारों के द्वारा भाजित जो अवधिज्ञानावरण का द्रव्य शेष रह जाता है वह पुद्गल स्कन्ध अवधिज्ञान के विषय भूत व्रव्य का प्रमाण है। उससे सूक्ष्म स्कन्ध को सौधर्म का देव अबधिज्ञान से नहीं जान सकता है, किन्तु उसमें स्थूल स्कन्ध को जानने में कोई बाधा नहीं है। काल की अपेक्षा -सोधर्म युगल के देवों के अवधिज्ञान का विषयभूत काल असंख्यात करोड बर्ष है, और शेष देवों के अवधिज्ञान के विषय भूत काल यथा योग्य पत्य के असंख्यास भाग प्रमाण है। जैसे-- असंघटि-मान लो अवषिक्षेत्र के १० प्रदेश हैं, और अवधिज्ञानावरण कर्म स्कन्ध के १००००००००००० परमाणु है ! तथा घवभागहार ५ है अतः
अवधिज्ञानावरण का द्रव्य १. प्रदेश
LoaDOODOOO.O १०-१९
१०००००००००००४-२०००००००००० १-१
? ust: - ४:420000 ८-१७
४०.०००००००४ -500000000 ७-१६
८.0000000x1 = १६०००००.. ६-१-५
१६०००००००xt= ३२०००... ५-१४
३२००००.०४६ = ६४०.... ४-१-३
६४०.४00x1 = १२८०.०० ३-१-२
१२८००००४-२५६०००
१५६०००४५ = ५१२०. १-१-०
५१२००४- १०२४. पृदंगल स्कन्ध को वैमानिक देव अपने अवधि नेत्र से जानते हैं। अथ वैमानिकदवानां जननमरणान्तरं निरूपयति
दुमुदुसु तिचउक्केसु य सेसे जणणंतरं तु चवणे य । सचविण पक्ख मासं दुगचदुलम्मासगं होदि ।। ५२९ ।। द्वयोर्द्वयोः त्रिचतुष्केषु च शेषे जननान्तरं तु च्यवने च ।
सप्तदिनानि पक्षं मासं द्विकचतु घण्पासक भवति ॥ ५२६ ॥ दुसु बुसु । दूपोतयोस्थिचतुष्केषु शेषे घेति षट्सु स्थानेषु बननरहितान्तरकालो मरणरहितान्तरकालश्च यथासंस्मं सप्तदिनामि पलं मासं हिमासं पतुसिं षण्मासं च भवति ॥ ५२६ ॥
अथ वैमानिक देवा के जन्ममरण के अन्तर का निरूपण करते हैं: