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त्रिलोकसार
पाया : २१४-२१५-२१५
अस्सस्थसत्तसामलिजमुवेतसकदंबकपियंग | सिरिस पलासरायदुमा य असुरादिचेल तरू ||२१४।।
अश्वत्थसप्तच्छदशाल्मलिजम्बूबेतसकदम्बकप्रियङ्गवा ।
शिरीषः पलाशराजद मौ व असुरादित्यतरवः ॥२१॥ अस्स । छायामात्रमेवाच। ॥२१४॥ उन स्थवृक्षों के भेद कहते हैं
गाषा:--अश्वत्थ ( पीपल ), सप्तपणं, शाल्मलि, जामुन, वेस, कदम्ब, प्रियंगु, शिरीष, पक्षाश और राजद्रुम ( चारोली का वृक्ष ) ये दस चैत्यवृक्ष क्रम से उन अमुरादिक कुलों के चिह्न स्वरूप होते हैं ॥२१४।।
वियोवार्थ:--सरल है। अथ चैत्यद्रमाणामन्वर्थतो समर्थयते
चत्ततरूणं मूल्ने पसंयं पडिदिसम्हि पंचेच | पलियंकठिया पहिमा सुररिचया ताणि वदामि ।।२१५॥
चैत्यतरूण मूले प्रत्येक प्रतिदिश पत्र व ।
पर्यङ्कस्थिताः प्रतिमाः मृराचिताः ताः वन्दे ॥२१५।। खेत । छायामात्रमेवाः ॥२१॥ चैत्यवृक्षों की सार्थकता का समर्थन करते हैं
नापार्ष:- चत्यवक्षों के मूलभाग को चारों दिशाओं में पल्यामन से स्थित तथा देवों द्वारा पूज्य पाच पाच प्रतिमाएं हैं, उन्हें मैं ( नेमिचन्द्राचार्य ) नमस्कार करता हूँ ॥२१॥
की चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में पद्मासन से स्थित मौर देवों द्वारा पूज्य पांच पांच जिन प्रतिमाएं विराजमान है, उन्हें मैं नमस्कार करता हूँ। अथ तरपतिमामस्थमानस्तम्भस्वरूपमाह
पडिदिसयं णियसीसे सगसगपडिमाजुदा विराजति । तुगा माणस्थंभा रयणमया पहिदिसं पंच ।।२१६।।
प्रतिदिश निजशीर्षे सप्तमतप्रतिमायुता विराजन्ते ।
नुङ्गा मानस्तम्भा रलमय्यः प्रतिदिशं पञ्च ॥२१॥ परि । छायामात्र वार्षः ॥२१॥