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त्रिलोकसार
गाथा : ४६१-४९२
युगल की २५० योजन, ब्रह्म युगल की २०० योजन, लान्तब युगल की १५० पोजन, शुक्र युगल की १२० योजन, शतार युगल की १०० योजन और आनतादि चार कल्पों के सातवें स्थान में स्थित नगरों के प्राकारों { कोटी ) की ऊंचाई ८० योजन प्रमाण है। मथ तत्प्राकारगाधविस्तारावाह--
गाढो वित्थारो विय पपणास दलकमं तु पंचमगे। चनारि तियं नई चरिमे दुगमद्धसंजु ।। ४९१ ।। माधो विस्तारः अपि पश्चाशत् दलमस्तु एश्चमके।
चनारि त्रीणि षष्टे चरमे दिकमधंसंयुक्तम् ॥ ४९१ ॥ पाहोवि । तामाकारगायो भूगतोय इत्यपः । तहितारोऽपि पारी पक्षाशयोजनानि उपर्युपरि पर्वावंकमः । तु पुन: पक्षमस्थाने तत्वारि योजमानि षष्ठस्माने त्रीणियोजनानि चरमस्पाने प्रयोजनसंयुतं योजनद्वयं सातव्यं ।। ४६१ ॥
उन प्राकारों के गाध ( नोंव ) और विस्तार का प्रमाण कहते हैं :
मापार्ष:-[ उपयुक्त सात स्थानों में स्थित प्राकारों के ] अवगाव (नीव) और उसका विस्तार इन दोनों का प्रमाण ५० योजन स्थानों
का RE: आर- पाचवें स्थान का ४ योजन, छठे का तीन योजन और सातवें स्थान का २३ योजन है ।। ४९१ ।।
विशेषार्थ :-ऊपर कहे हुए सातों स्थानों में स्थित प्राकारों के जमीन को गहराई और प्राकारों का विस्तार अर्थात् चौड़ाई इन दोनों का प्रमाण प्रथम युगल में ५० योजन, दूसरे में २५ योजन, तीसरे में ३" योजन अर्थात् १२३ योजन और चौथे में ६३ योजन है। पांचवें स्थान में ४ योजन. छठे स्थान में ३ योजन और सातवें स्थान में २३ मोजन प्रमाण है। अथ तत्प्राकाराणां गोपुरस्वरूपं गाथायेनाह
पहिदिस गोउरसंखा तेसिं उदभोषि चउतिदोणिसया । तसो दुगुणासीदी बीसविहीणं तदो होदि ॥ ४९२ ।। प्रतिदिशं गोपुरसंख्या तेषां उदयोऽपि चतुनिद्विशतानि ।
ततः द्विगुणाशीतिः विशतिविहीनः तता भवति ।। ४१२॥ परिषिस गो। प्रसिरि तत्प्राकाराणा गोपुरसंख्या तेषामुवयोऽपि पूर्ववत सप्तसु स्थानेष पासयं चतुः शतयोशनामि विशयोजनानि द्विशतयोजनानि ततः परं विगुणातियोजनानि ततः पर विशया हीनकमो भवति ॥ ४९२ ॥
उन प्राकारों के गोपुरों का स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं... गाथा:-उन सातों स्थानों के प्राकारों को प्रत्येक दिशा में जितनी गोपुरवारों की संख्या