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ए । ६५६-६५.७
मरतिर्यक्लोकाधिका
जय मेरोः पूर्वापरदक्षिणोत्तरदिक्षु स्थितानां हृदानां प्रमाणमेकैकस्य हृदस्य तीरद्वयस्थितानां शैलानां संख्यां च तदुत्सेधेन सह गाथाचतुष्टयेनाह -
गमिय तदो पंचसयं पंचसरा पंचसयमिदंतरिया । कुरुमद्दसालमज्झे अणुणदिदीहा हु पउमदद्दसारसा || ६५६ || गत्वा तत पशतं पच सरांसि शतमिलान्वरिताः ।
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कुरु भद्रशाळमध्ये अनुन दिदीर्घारिण हि पद्म हदसदृशानि ॥ ६५६ ॥
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गयि । यमकगिरिम्यां पञ्चशतयोजनानि ५०० गत्वा कुरुक्षेत्रयोः पूर्वापर भद्रसालयोश्च मध्ये पंचशतयोजनान्तराणि पञ्च पञ्च सति । धनुन दिवयोग्यदीर्घाण पायामकमलाविना पद्मवसहशानि संति ॥ ६५६ ।।
मेरु पर्वत की पूर्व पश्चिम, दक्षिण और उत्तर इन चारों दिशाओं में स्थित द्रहों का प्रमाण तथा एक एक हद के दोनों तटों पर स्थित काखनशैलों को संख्या तथा उत्सेध चार गाथाओं द्वारा कहते हैं:
गाथायें :- यमक गिरि से पांच सौ योजन आगे जाकर कुरु और भद्रशाल क्षेत्रों में पांच पांच द्रह हैं। जिनमें प्रत्येक के बीच पांच पांच सौ योजन का अखराल है। ये द्रह नदी के अनुसार यथायोग्य दोघं हैं तथा इनमें रहने वाले कमल आदि का आयाम पद्मद के सदृश है ।। ६५६ ।।
विशेषार्थ :- यमकगिरि पर्वतों से पांच सौ योजन आगे जाकर सोता और सोतोदा नदी में देव कुरु, उत्तर कुरु पूर्व भद्रवाल और पश्चिम भद्रशाल इन चार क्षेत्रों के मध्य पाँच पाँच अर्थात् २० द्र हैं। ये द्र नदी के अनुसार यथायोग्य दीर्घं हैं । अर्थात् ये द्रह् सीता सीतोदा नदी के बीच बीच में हैं, अतः नदी की जहाँ जितनी चौड़ाई है, उतनी ही चौड़ाई का प्रमाण द्रहों का है। इन ग्रहों की लम्बाई पद्मद के सदृश १००० योजन प्रमाण है। जिस प्रकार पद्म दह में कमलादिक को रचना है उसी प्रकार इन ग्रहों में भी है।
नोट :- उपयुक्त गाथा में सीता, सोतोदा सम्बन्धी देवकुरु, उत्तर कुछ, पूर्व भद्रशाल और पश्चिम भद्रशाछ में ५, ५ अर्थात् २० वह बतलाये गये हैं, किन्तु गाथा ६५७ में मात्र १० द्रहों के ही नाम गिनाये है, बीस के नहीं । अन्य मात्रायें ( विलोयपम्पत्ति एवं लोक विभाग आदि में ) ने कुछ दश ही वह माने हैं, २० नहीं माने।
नीलुचरकुरुचंदा एरावदमवंतणिसहा य | देवरसाविज्जू सीददुगदहणामा || ६५७ ॥ नीलोत्तरकुरुचन्द्रा ऐरावत माल्यवन्तो निषेधश्च । देव कुरुसूरसुलसविद्युतः सीताद्विक हदनामानि ॥ ६५७ ॥