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________________ २६६ त्रिलोकसार ३०५०००० न्यूते सति वस्वन्तरवेदिकापरतो गरबा पतितरज्जुप्रमाणं स्यात् ७५००० । तस्मिन्नधितेऽपि ३१२५००० प्रषिते १५६२५०० तोयवार छिन्नरज्जुप्रमाणं स्यात् । सस्मिम् तस्मात्प्राक्तन सर्भ वलय या से १४५०००० प्रपनीते सति तदभ्यन्तरयेविका परतः पतितरज्जुक्षेत्रफलप्रमाणे स्याद १९२५००। एवमेव तत्तत्प्राक्तनाथंमधकृत्य तस्मिन् तस्मात्प्राक्तन सर्ववलयध्यासमपनीय समस्यन्सर वे विकारतः पतितरज्जुक्षेत्र प्रमाणं शातव्यम् ॥ ३५३ ॥ पाच। । ३५२-३५३ अब असंख्यात द्वीप समुद्रगत चन्द्रादिक की संख्या प्राप्ति के लिए गच्छ का प्रमाण लाकर उसके कारणभूत असंख्यात द्वीप समुद्रों की संख्या आठ गाथाओं द्वारा कहते हैं : गाथार्थ :- सुमेरु पर्वत के मध्य से अन्तिम स्वयम्भूरमण समुद्र के एक पाश्र्व भाग पर्यन्त राजू का दल अर्थात् अधेराजू क्षेत्र होता है, तथा उसका आधा स्वयम्भूरमण समुद्र की अभ्यन्तर वैदिक से दश गुणित पनहतर सो योजन आगे जाकर दिखाई देता है, क्योंकि पूर्व के सर्व द्वीप समुद्रों का जितना व्यास होता है, उससे उत्तरवर्ती द्वीप समुद्रों का व्यास एक लाख योजन अधिक होता है ।। ३५९ ३५३ ।। विशेषार्थं :-- सुमेष पर्वत के मध्य से प्रारम्भ कर अन्तिम स्वयम्भूरमा समुद्र के एक पा भाग पर्यन्त का क्षेत्र राजू प्रमाण है तथा स्वयम्भूरमया समुद्र की अभ्यन्तर देदी से पचहत्तर हंजार ( ७५००० ) योजन आगे जाकर उस अधे राजू का भी अर्ध भाग का प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि पूर्व स्थित सर्वेद्वीप समुद्रों के व्यास को जोड़ने से जो प्रमाण प्राप्त होता है, उससे उत्तरवर्ती सर्व द्वीप समुद्रों के व्यास का प्रमाण एक लाख योजन अधिक होता है । इसोका स्पष्टीकरण करते हैं :- मान लीजिए कि स्वयम्भूरमण समुद्र का व्यास बत्तीस (३२) लाख योजन है। जम्बूद्वीप के अर्धव्यास महिन सर्वद्वीप समुद्रो के व्यास का प्रमाण जोड़ने पर निम्नलिखित राशि उत्पन्न होती है :- जम्बूद्वीप का अर्धव्यास ५०००० योजन + २ लाख + ४ लाख + ८ लाख + १६ लाख + ३२ लाख --- ६२५०००० ( साढ़े बासठ लाख ) हुआ, यही ( ६२५०००० योजन ) कल्पना किए हुए राजू का प्रमाण है । इसको आधा करने पर ( 1300 ) ३१२५००० योजन प्रमाण होता है। यही दूसरी बार अ किया हुआ राजु का प्रमाण है। इन ३१२५००० योजनों में से पूर्व द्वीप समुद्रों के वलय व्यास ५००००+ १ लाख + ४ लाख + ८ लाख + १६ लाख - ३०५०००० को घटा देने पर (३१३५०००३०५०००० ) स्वयम्भूरमण समुद्र की अभ्यन्तर वेवी से ७५००० योजन बागे जाकर अर्थ राजू का भी अर्ध प्रमाण प्राप्त होता है। आधा किया हुबा जो राजू का ३१२५००० प्रमाण है, उसे पुना माघा करने पर (313500०) १५६२५०० | पन्द्रह लाख बासठ हजार पांच सो ) योजन तीसरी बार किया हुआ राजू का प्रमाण है। इसमें से पूर्व द्वीप समुद्रों के वलय व्यास ५०००० + २ ला०+ ४ लाख + ८ लाख १४५०००० को घटा देने पर १५६२५०० - १४५०००० ) - ११२५०० ( एक
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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