________________
पापा : १४२-६४३-६४४
नरतिये ग्लोकाधिकाच
|
तदिए सुरुषमाणं मट्ठदि से अट्ठसयरुक्खा ।। ६४२ ।।
चतुर्गापुरका बाह्यतः प्रथमद्वितीय के शून्यं । तृतीये सुरोत्तमानां अष्टदिशासु अष्टशतवृक्षाः ॥ ६४२ ।।
५३५
१२ वेद्यश्चतुर्णोपुरयुक्ताः बाह्यवेद्या घारम्य प्रथमद्वितीयान्तराले शूम्ये तृतीयेन्तराले सुचनानामशतवृक्षाः १०८ महसु विशासु मिलित्वा भवति ॥ ६४२ ॥
गावार्थ :- वे १२ वेदियो चार चार गोपुरों ( दरवाजों ) से युक्त हैं । बाह्य वैदिका की ओर से प्रारम्भ करके प्रथम और द्वितीय अन्तराल में शून्य अर्थात् परिवार वृवादि कुछ नहीं हैं। तीसरे अन्तराळ को आठों दिशाओं में उत्कृष्ट पक्षदेवों के १०८ वृक्ष है ।। ६४२ ।।
तुरिए पूव्वदिसाए देवीणं चारि पंचमे दु घणं । बावी उरसादी हवे गयणं ।। ६४३ ॥
तुर्ये पूर्वदिशि देवीनां चत्वारा पचमे तु वनं ।
वाप्यः वृत्तचतुरस्रादयः पठे भवेत् गगनं ॥ ६४३ ।।
सुरिए । चतुर्थात पूर्वविशि देवीनां घरवारो वृक्षाः पञ्चमे त्वन्तराले वनं तत्र तचतुरस्राचा वाध्यवच सति । पष्ठेऽसराले शून्यं भवेत् ॥ ६४३ ॥
गाथा :- चौथे अन्तराल में पूर्व दिशा में पक्षी देवाङ्गनाओं के चार जम्बू वृक्ष हैं। पाँचवें अन्तराल में वन है और उन वनों में चौकोर और गोल आकारवाली बावड़ियाँ है। छठे अन्तराल में किसी तरह की रचना नहीं है, वहीं शून्य है ॥ ६४३ ॥
चउदिसमोलसहृदयं तपुरकखे सचमम्हि ममगे । ईमाणुचरवादे चदुस्सहस्सं समाणाणं ।। ६४४ || चतुर्दिक्षु षोडशसहस्र' लनुरक्षाणां सप्तमे अनुमके | ऐशान्युत्तरवातासु चतुःसहस्र समानानाम् ॥ ६४४ ॥
चर । सप्तमान्तराले चतुदिक्षु मिलित्वा षोडशसहस्राणि १६००० मङ्गरक्षकारण वृक्षाः अष्टमेरा ऐशान्यामुत्तरस्यां वायव्यां च विशि चतुः सहस्राणि सामानिकानां वृक्षाः ॥ ६४४ ॥
गाय :- सातवें अस्तराल की चारों दिशाओं में { प्रत्येक दिशा में चार चार हजार ) सोलह हजार वृक्ष धनुरक्षकों के हैं तथा आठवें अन्तराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशापों में सामानिक देवों के चार हजार वृक्ष हैं ।। ६४४ ।।
विशेषाणं :- सातवें अन्तराल में चारों दिशाओं के मिलाकर कुल सोलह हजार वृक्ष उन्हीं उपर्युक्त यक्षों के अङ्गरक्षक देवों के वृक्ष हैं।