SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ त्रिलोकसार गाया ५२० सोधपं स्वर्ग से आनतादि सोलह स्वर्गों के देवों का अधिक्षेत्र अपने अपने विमान के जा दण्ड से नीचे उपयुक्त त्रिक्रिया शक्ति से युक्त तरक पृथ्वी पर्यन्त है। नवग्रैवेयक विमानवासी देव अपने विमान के ध्वजा दण्ड से नीचे छठवीं पृथ्वी पर्यन्त तक ही जानते है, तथा नत्र अनुदिव विमानवासी देव अपने अपने विमान के शिखर से नीचे जहाँ तक नीचे का बाह्य ( तनु ) वातवलय है वहाँ तक अर्थात् कुछ कम चोदह राजू लम्बी मऊ एक राजू चौड़ी ऐसी सर्व लोक नाड़ी को देखते हैं । *** सव्वं च लोयणालिं पसंति मणुचरेसु जे देवा । सगखेचे य सकम्मे रूवगदमणंत भागो य ।। ५२८ ।। स च लोकनाथ पश्यति अनुत्तरेषु ये देवः । स्वक्षेत्रे च स्वकर्मे रूपगतमनन्तभागं च ॥ ५२८ ॥ सानुत्तरेषु ये देवास्ते सर्वांच लोकमालि पश्यन्ति । प्रतिकार दयते । स्वक्षेत्रे एक प्रवेशोऽपनेतव्यः । स्वक मंरिंग एको ध्रुवभागहारो ९ बातव्यः यावत्प्रवेशसमाप्तिः प्रमेनादधिविषयद्रव्यमेवः सुखितः । एतवर्ष विशवं करोति । कल्पसुराणां स्वस्वावधिक्षेत्रं विगतविलसोपचयमत्रधिज्ञानावरणद्रव्यं च संस्थाप्य एकप्रवेशमपमोय एकवारं ध्रुवभागहारे भजे यावत् स्वस्वावधिविमान विषय क्षेत्र प्रवेशप्रमाणं तावद धवभागहा रेल द्रव्ये सति - चरमख तत्र तनाव विज्ञान विषय द्रव्यमारणं भर्षात ।। ५२८ ।। aya 3XY पायार्थ :- पाँच अनुत्तय विमानवासी देव सम्पूर्ण छोकनाड़ी को देखते हैं। अपने कर्म परमाणुओं में अनन्त भाग का भाग देते जाना और प्रत्येक बार अपने ( अवधि ) क्षेत्र में से एक प्रदेश घटाते ( हीन करते ) जाना चाहिए ॥ ५२८ ॥ विशेषार्थ :- पाँच अनुत्तर विमानों में जो देव है, वे सम्पूर्ण लोकताड़ी को देखते हैं। अब अवधिज्ञान के जानने का विधान कहते हैं अपने ( अवधि ) क्षेत्र में से अब एक प्रदेश घटाना तब अपने ( अवधिज्ञानावरण) कर्म परमाणुओं में एक बार न बहार का भाग देना, जो लब्ध प्राप्त हो उसमें पुनः धवहार का भाग देना और क्षेत्र में से एक प्रदेश घटा देना । इस प्रकार एक एक प्रदेश घटाते हुए जब तक सर्व प्रदेश समास म हो जाय तब तक भाग देते जाना चाहिए। इस कथन से अवधिज्ञान के विषयभूत मध्य का भेद कहा। पुनः इसी अर्थ को विशद करते हैं : वैमानिक देवों का अपना अपना जितना जितना अवधिज्ञान का विषयभूत क्षेत्र कहा है, उसके जितने जिसने प्रदेश हैं उन्हें एकत्रित कर स्थापित करना, और विससोपचय रहित सत्ता में स्थित अपने अपने अवधिज्ञानावरण कर्म के [ कार्मण वर्गणारूप परिणत कर्म ] परमाणुओं को एक ओ I
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy