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त्रिलोकसार
पाथा: २१९-२२०
ससुगन्ध । छायामात्रमेवार्थः ॥२१॥ उन भवनों का विशेष स्वरूप कहते हैं
पायार्थः- भवनबासो देवों के भवन उत्तम सुगन्धित पुष्पों से शोभायमान हैं और उनकी भूमि रत्नमयी है। उनकी दीवारें भी रत्नमयी हैं । वे भवन सतत प्रकाशमान रहते हैं तथा सर्वेन्द्रियों को सुख देने वाली चन्दनादि वस्तुओं से सिक्त हैं ।
विशेषार्थ:-गाथार्थ की भांति है। अथ तत्रत्यदेवानासंदवथ माह
अट्ठगुणिढि विसिट्ठा णाणामणिभूसणेहि दिरंगा । भुजति भोगमिट्ट सगपुष्यतवेण तत्व मुरा ।।२१९।। ___ अष्टगुणाधिविशिष्टाः नानामणिभूषणं; दीमाङ्गाः।।
भुजते भोगमिष्ट स्त्रकपूर्वनपसा लत्र सुराः ।।२१।। पट्ट । छायामात्रमेयार्थः ॥२१॥ भवनवासी देवों का ऐश्वयं--
गावार्थ:-जाना प्रकार की मणियों के आभूषणों मे दीप्त तथा अगुण ऋतियों से विशिष्ट वे भवनवासी देव अपने पूर्व तपश्चरण के फलस्वरूप अनेक प्रकार के इष्ट भोग भोगते हैं ।। २१६॥
विशेषाः -जो जीव मनुष्य पर्याय में तपश्चरण कर पुण्य सनय करते हैं और जिनके देवायु का यन्ध हो जाता है तथा जो बाद में सम्यक्त्वादि स च्युत हो जाते हैं, वे जीव अनेक गुण नियों से युक्त भवनवासी देव होकर मनोहर इष्ट भोग भोगते हैं। अथ तेषां भवनानां भूगृहोपगानानो व्यासादिकमाह
जोयणसंखासंखाकोडी तदिन्थडं तु चउरस्सा । निसयं बहलं मझं पहि मयतुंगेकर्ड च ||२२० ।।
योजनसंख्यासंख्यकोट्यः तद्विस्तारस्तु चतुरस्राः ।
त्रिशतं बाहल्यं मध्यं प्रति शततुङ्गककूटरच ॥२२० ।। जोयण । धन्येम योजनानां संख्यातकोटधः उत्कर्षेप असंख्यातकोटघातविस्तारस्तु चतुरना। विशतयोजनबाहल्यं । तत्र प्रतिमध्ये शततुङ्ग कटस्सदुपरि चैत्यालयश्च ॥२२०॥
भूमिगृह की उपमा को धारण करने वाले भवनों का व्यासादि कहते हैं: