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पाथा:४५७-४५८
वैमानिकलोकाधिकार विशेषार्प:-अधि, अचिमालिनी, वैर और वैरोचन ये चार श्रेणीबद्ध विमान कम से पूर्व, दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित है। सोम, सोमप्रभ अङ्क बोर स्फटिक ये चार श्रेणीबद्ध विमान क्रम मे चार विदिशाओं में स्थित है। इन सबके मध्य में आदित्य नामक इन्द्रक विमान स्थित है। इस प्रकार ये नव अनुदिश विमान हैं।
विजयो द्वैजयंतो जयंत अवराजिदो य पुबाई । सबसिद्धिणामा मज्मम्मि अणुचरा पंच ।। ४५७ ॥ विजयस्तु वैजयन्तः जयन्तः अपराजिनश्च पूर्वादयः।
सर्वार्थसिद्धिनामा मध्ये अनुत्तराः पञ्च ॥ ४५७ ।। विजयो छु। विजयो वैजयन्तो प्रयन्त अपरामिता पूर्वादिदिगतषिमानाख्याः मध्ये सनिलिदिनामेन्त्रक । एते पश्च मनुत्तरविमानाः ॥ ४५७ ।।
गावार्थ:-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार भेणीबद्ध विमान क्रमशः पूर्वादि दिशाओं में ( एक, एक हैं। इनके मध्य में सर्वार्थ सिद्धि नामक इन्द्रक विमान है। इस प्रकार पाँच अनुतर विमान हैं ।। ४५७ ॥
विशेषा:-सुगम है। अयोक्तकल्पकल्पातीतविमानानामवस्थानमाह
मेरुतलादु दिवड्ड दिवड्डदलछस्कएक्करज्जुम्हि । कप्पाणमहजुगला गेवेजादी य होति कमे ।। ४५८ ।। मेमनलात् दुघर्धं घर्धदलषट्कै करज्जी।
कल्पानां अष्टयुगलानि याद यश्च भवन्ति क्रमेण ॥ ४५८ ।। मेहताला । मेहताला द्वितोपाळरो द्वितीया रज्यो इलषदकरजी व कल्पानामयुगलामि कमेण भवन्ति । एकस्य रजनो नवर्गवेयकावनि कमेण भवन्ति ।। ४५ ॥
उक्त कल्प और कल्पातीत विमानों का अवस्थान कहते हैं
गाथार्थ:--मेरु तल से डेढ़ राजू, डेढ़ राजू और छह अर्थ राजुओं में कम से कल्प स्वों के आठ युगल है। इनके ऊपर एक राजू में कल्पातीत नवनवेपक आदि विमान
विशेषाय-मेघतल से डेढ़ राजू में सौधर्म ऐशान, इसके ऊपर डेढ़ राजू में सानत्कुमारमाहेन्द्र इसके ऊपर ऊपर अर्घ अर्घ राजू के प्रमाण में कम से अन्य छह युगल अवस्थित हैं । इस प्रकार छह राज में सोलह स्वमं स्थित है । सोलह स्वर्गों के ऊपर एक रात में नव प्रबेयक, नत्र अनुदिश और पांच अनुत्तर विमानों का अवस्थान है।