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त्रिलोकसाद
गाषा : ४२२ से ४२६
तेवाल
स्यात् ।
त्रिवारिशद ४३ पर्वस्वसीतेषु दुर्यं विपुषं पढ़यां तिथो पुनर्वसुनक्षत्रगत पंचमं विपुषं पोसरपञ्चाशत् ५५ पस्थतीतेपु द्वावश्या मुतराभाव पवे नक्षत्र यात् ॥ ४२३ ॥
एसडि
प्रवृषष्टि ६८ पर्वसु गतेषु तृतीयार्या तिथों मंत्रे अनुराधायां ष विपुषं स्यात् । प्रशीति ८० पथं गतेषु नवम्यां तिथौ मघानक्षत्रे सप्तमं विपुषं स्यात् । इह त्रिनवति ६३ पर्वसु गतेषु भ्रमम् विषुवम् ॥ ४२४ ॥
३८२
महि । अश्विननक्षत्र प्रमावास्यायां पर्वरिण श्यात् नवमं विषुषं पुन: पलशतपथस्वतीतेषु बहुधा तिथौ उसराचा नक्षत्र स्यात् ॥ ४२५ ॥
रिमं शमं । चरमं शमं विषुवं सत्यशोत्तर १७ पर्वस्वीतेषु द्वादश्यां तिथौ उत्तरफाल्गुन्यां नक्षत्र जायते ॥ ४२६ ॥
घनिष्ठा नक्षत्र में द्वितीय विप तिथि को स्वाति नक्षत्र में तृतीय, पत्रपन पर्वो के बीतने पर द्वादशी
गावार्थ:-अठारह पर्वो के बीतने पर नवमी तिथि को होता है । इकतीस पर्वों के बीत जाने पर पचदशी [ अमावस्या ] तेतालीस पर्वों के बीतने पर षष्ठी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में चतुर्थ के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में पचम, अड़सठ पर्वो के बोलने पर तृतीया तिथि को मंत्र ( अनुराधा ) नक्षत्र में षष्य, अस्सी पत्र के बीतने पर नवमी तिथि को मघा नक्षत्र में समम तेरानवे पर्वों के बीत जाने पर पूर्ण पर्व ( अमावस्या ) को अश्रिती नक्षत्र में अष्टम्, एक सौ पाँच पदों के बीत जाने पर पष्ठी तिथि को उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में 6 वाँ और एक सौ सत्तरह पर्वो के बीत जाने पर द्वादशी तिथि को उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में दशवी विषुप होता है ।। ४२२-४२६ ।।
विशेषार्थ :- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक पचवर्षात्मक युगों में सूर्यो के दक्षिण व उत्तर अयन होते रहते हैं, तथा प्रत्येक अयन का अर्धभाग व्यतीत होने पर विषुप होता है। ये विषुप कितने कब और कौन कौन मास एवं नक्षत्रों में होते हैं । उसका विशेष विवरण :--
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