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________________ गामा : १४६ ज्योतिधिकार विशेषार्थ :--एक अयन छह मास का होता है, और प्रत्येक अयन का अर्धभाग व्यतीत होने पर दिन और रात्रि का प्रमाण बराबर होता है। यह दिन रात्रि के प्रमाण का बराबर होना हो विषुप है। अर्थात विपुप का लक्षगा है। पांच विषुप दक्षिणायन के अर्धकाल में और पांच विषुप उत्तरायण के अधंकाल में इस प्रकार एक युग में कुल दश विधूप होने हैं । युग के प्रारम्भ में दक्षिणायन सम्बन्धी प्रथम विषुन आरम्भ के ६ प ( ३ माह ) व्यतीत हो जाने पर तृतीया तिथि में चन्द्रमा द्वारा रोहणी नक्षत्र के भुक्तिकाल में होना है। विगुण णव पधतीदे णवमीय विदियगं धणिढाए । इगितीसगदे दियं सादीय पण्णरसमम्हि ।। १२२ ॥ नेदालगदे तुरियं छट्टिपूणधसुगयं तु पंचमयं । पणरण्णपव्वनीदे वारसिए उत्तरामदे ।। ४२३ ।। अहसटिगदे तदिए मि छ? असीदिपन्नगदे ।। वमिमघाए सचममिह तेणउदिगदे द अद्वमयं ।।४२४| अस्सिणि पुण्णे पन्चे गरम पुण पंचजुदसए पन्वे । तीते छद्वितिहीए णखचे उपराषाढ़े ।। ४२५ ।। चरिमं दसम विसुपं सत्तरसुवरसएस पव्वेसु । तीदेसु पारसीए नाइदि उत्तरगफग्गुणिए ।। ४२६ ।। द्विगुणनवपतिीतेषु नवम्यां द्वितीयकं घनिष्ठायाम् । एकत्रिशद्गते तृतीय स्वातौ पञ्चदश्याम् ॥ ४२२ ॥ त्रिचत्वारिशद्गतेपू तुरीयं षष्ठी पुनवेसुगतं तु एवमम । पपल्याणपतीतेषु द्वादश्यां उत्तराभाद्र ।। ४२३ ।। अष्टिगतेषु तृतीयायां मैत्रे षष्ट अगीतिपर्वगतेषु । नवमीमघायां सप्तम इह निमवतिगत तु अष्टमम् ।। ४२४ ।। अश्विनी पूर्णे पर्वणि नवम पुन. पञ्चयुतशतेषु पर्वेषु । अतीतेषु षष्ठीतिथी नक्षत्रे उत्तराषाढ़े ॥४२५ ॥ चरमं दशमं विष्पं सप्तदशोत्तरशतेनु पर्वषु । अतोलेप द्वादश्यां जायते उत्तराफाल्गुम्याम् ॥ ४२६ ।। दिगुण । हिगुणनव १८ पर्वस्वीतेषु नवम्यो द्वितीयं विषुए मिठायां स्थाव, एकत्रिशस्पर्ष स्वतीतेपु तृतीयं विषुपं स्वातिनमने १७वशतियो स्यात् । कृष्णपक्षस्थविमावास्यायामेवेत्यर्षः ॥ ४२२ ॥
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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