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गाषा : २ नरतियंग्लोकाधिकार
७१६ स्यात १.२०१४१३१ । पत्र मबीव्यास १.०० मपनीय १०१११४१३ दलिते ५.४५७०३६३ कच्छाया प्राधायाम: स्यात् ३१॥
माथा:-अभ्यन्तर भद्रशाल को पर्वत रहित परिधि को आठ की कृति से गुणित कर दो सौ बारह का भाग देने पर जो लब्ध प्राप्त हो जसमें से नदी ( सोतोदा) का व्यास घटाकर शेष को माधा करने कर गधमालिनी देश की लम्बाई का प्रमाण प्राप्त होता है और बाह्य भद्रशाल की पर्वत रहित परिधि को माठ की कृति से गुणित कर दो सौ बारह का भाग देने पर जो उब्ध प्राप्त हो चसमें से सीता नदी का व्यास घटा कर अवघोष को बाधा करने पर कच्छदेश के भायाम का प्रमाण प्राप्त होता है ॥३१॥
विशेषार्थ :-जबकि २१२ शलाकाओं का पर्वत रहित पर्वतों के क्षेत्र का प्रमाण १९५५१२५ योजन है, तब विदेश की ६४ शलाकानों का कितना क्षेत्र होगा? इस प्रकार राशिक करने पर ( ११५५५९५४५४ ) पर्वत सहित क्षेत्र के १९५५२९५ योजन प्रमाण को ६४ से गुणित करने पर १२५१३२४८ : पोजन हुए। इन्हें २१२ से भाजित करने पर लवण समुद्र की ओर अम्यन्तर भद्रगाल की अभ्यन्तर सूची पर विदेह क्षेत्र का विष्कम्भ ५९०२४७३१३ योजन प्राप्त हुआ, इसमें से सोतोदा नदी का 1.1., योजना पर सपा को बाघा करने पर अभ्यन्तर भदशाल की वेदी के समीप पन्धमालिनी नाम देश के अन्त में दक्षिणोत्तर लम्बाई का प्रमाण ( ५६०२४७११३ - Pra ५८९२४४३३३:२)=१९४६२१३१३ योजन प्राप्त होता है ।
पूर्व में लाए हुए पासको खण्ड के बारच भगशाल के ११२५१५८ मोजन सूची म्यास का वर्ग कर उपे १० से गुणित करने पर १ ११२५१५८४ ११२५१५८x१०)=१२६५९८०५२४६६४० योजन हुए और इसका वर्गमूल ग्रहण करने पर उसकी परिधि का प्रमाण ३५५८०६२ मोजन हुआ। इसमें से पर्वत अवरुद्ध क्षेत्र १७४२ योजनों को पटाकर अवशेष रहे ( ३५५८०६९ -- १७९८४२ )= ३३४६२२० योजनों का पूर्वोक्त प्रकार रागिक विधि से आठ की कृति ६४ से गुणित करने पर २१६२७००८० योजन हए, इन्हें २१९ से भाजित करने पर कालोदक की ओर बाप भद्दशाल फी सूवी के स्थान पर उस भद्रशाल की वेदी के निकट विदेह क्षेत्र का विस्तार ( २१२११८.)१०१०१४१३१६योजन प्राम हमा। इसमें से सीता नदी का १००० योजन व्यास घटा देने पर १०९५१४१३६६ योजन अवशेष रहे. इनका अर्थ भाग अर्थाद ( १.१६१४१३१२)=५-१५७०३११ योजन बाध्य भदशाल की वेदी के निकट कच्छ देश का अभ्यन्तर आयाम ( लम्बाई ) है। प्रदानी कच्यादिविजयादीनां मध्यायाममन्त्यायाममानेतुमवतारं गायावयेनाह
विजयावाखाराणं विभंगणदिदेवरण्ण परिहीमो । रिणिसयबारभजिदा बचीसगुणा नहिं पड्डी ।। ९३२ ।।