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पाथाः। १७२ लोकसामान्याधिकार
१७७ पदर । प्रतरा १३ हतं बिलबाहुल्यं इन्तक १ घेणीवप्रकोणकाना दातुल्य १३।। चतुः कोशाना एकयोजने इपता कोशानो किमिति सम्मात्य योजनं कृत्वा ।३।१ प्रतरस्थितनूमित: उपयंत्रः सहस्रसहस्रयोजनहोना शीति सहस्र ७८००० तपा होनबत्तीस ३०००० महावीसादि २६००० सहस्र समानछेदेनापनोप १९४७ धेरणीवर चतुभिरपचपनीय ३३४. प्रकीरणकं समच्छेवेनापनीय ५५१११ रुपम्यूनपद १२ हतायां सस्य 318 | २3318 | १३११ तत्पृषिष्यां' ऊध्वगं बिलासरं भवति ॥१२॥
इन्द्रकादि बिलों के अन्तराल का प्रमाण कहते हैं:
गावार्थ:-प्रत्येक पृथ्वी में बिलों के बाहृज्य को पटलों के प्रमाण से गुणित कर तथा प्रतर स्थित भूमि में से घटा कर, एक कम प्रतरों { पटलों) के प्रमाण का भाग देने पर चाई में इन्द्रकादिक बिलों का अन्तर प्राप्त होता है ॥१७२।।
विशेषाय:-इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक बिलों के पृथक् पृथक् बाहुल्य को विवक्षित पृथ्वी के पटलों ( प्रतरों ) की संख्या से गुणित कर प्रतर स्थित भूमि ( अर्थात् नीचे ऊपर की एक एक हजार योजन भूमि छोड़ कर जितनी भूमि में बिल स्थित हैं उस ) में से विशोध्य अर्थात् घटाकर एक कम प्रतर प्रमाण से भाजित करने पर ऊँचाई में बिलों का अन्तराल प्राप्त होता है । जैसेः- प्रथम पृथ्वी के इन्द्रक का बाहुल्म प्रमाण १ कोश, धेणीबद्धों का कोश, और प्रकोणंकों का कोश है, अतः १४ १३=१३, १४ १३ - और x १३= को प्रतर स्थित भूमि में मे अर्थानु यहा अब्बल भाग की मोटाई व से ८० हजार योजन है किन्तु ऊपर नीचे एक एक हजार योजन में विल नहीं है। अत: प्रतस्थित भूमि मात्र ७०० हजार योजन में से घटाने के लिए कोश के योजन बनाने पड़ेगे । ४ कोश का एक योजन होता है. तो २५ और कोशों के कितने योजन होंगे ? इम प्रकार राशिक करने पर १.१३ और योजन प्राप्त होते हैं अतः ( 9:°-2): १३.५३1048:-3)xt=31१६ = ६४६६ योजन प्रथम पृथ्वी के इन्द्र: बिलों का अन्तराल है। (१८५५०-५३) =( -५३)४११-431° ६४६६३६ योजन या ६४६६ योजन २" कोश प्रथम पृथ्वी में श्रेणीबद्ध बिलों का अन्तराल है।
(sapg"-43) ( 91-88) x = ० ६४६६५३ योजन या ६४६६ योजन १३६ कोश प्रथम पृथ्वी में प्रकोणक बिलों का अन्तराल है।
द्वितीय वंशा पृथ्वी की मोटाई ३२००० पो है।-२००० यो०=३०००० योजन अवशेष रहे -- 3022°-(xix) =(300°°-3)xt=२६६५, योभन या २७ कोश वंशा पृथ्वी में इन्द्रक बिलों का अन्तराल है। १ तमिष्याः (म.)। .