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इतिहास में गङ्गनरेश राचमहल का समय विक्रम संवत् १०३१ मे १०४१ तक माना गया है । इनके सचित्र या सेनापति होने से चामुण्डराय का भी यही समय सिद्ध है और इन्हीं के समय नेमिचन्द्र सिद्धासचक्रवर्ती हुए है। इसलिए इनका समय विक्रम की ११ वीं शताब्दो का पूर्वाध है ।
रचनाएँ
श्री नेमिचद्राचार्य रचित निम्नलिखित ग्रन्थ उपलब्ध है-गोम्मटसार ( जीव काण्ड, कर्मकाण्ड ) त्रिलोकसार छविषता और क्षपासार। धनुवाद
ये सभी
हो चुके है, अतः इनके परिषद की काश्यता नहीं समझता । उपयुक्त ग्रथों को रचना प्राकृत भाषा में है। संस्कृत का अभ्यासी विद्वान् इन पचनाओं का भाव सरलता से हृदयं गत कर लेता है ।
प्रस्तुत टीका के प्रेरणा-स्रोत
श्री १०५ आर्थिक विशुद्धमतिजो ने त्रिलोकसार की यह टीका आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी महाराज की प्रेरणा से को है मेसा कि उन्होंने अपने 'बाथ मिलाअर' शीर्षक वक्तव्य में स्पष्ट किया है। श्री १०८ श्रतसागरजी महाराज 'यथा नाम तथा गुण: है यर्थात् सचमुच ही श्रुत के सागर हैं। पट्खण्डागम आदि आगम ग्रन्थों का आपने अच्छा प्रनुगम किया है। प्राकृत और संस्कृत भाषा का क्रमबद्ध अध्ययन न होने पर भी आप उसमें प्रतिपादित विषय को बड़ी सूक्ष्मदृष्टि से ग्रहण कर लेते हैं। त्रिलोकसार का पति एक गहन विषय माना जाता है परन्तु आपने अपनी प्रतिभा से उसे अच्छी तरह बैठाया है ।
वात्सल्य गुण की मानों आप मूर्ति हो है । संघस्य समस्त साधुन और माताओं की दिनचर्या वा प्रवृत्ति पर कठोर नियन्त्रण रखते हुए भी वासल्य रसने उन्हें प्रभावित करते रहते हैं। आप अभीक्ष्णज्ञानोपयोगो हैं । आपके सम्पर्क में रहने वाला व्यक्ति यदि अध्यवसायी हो तो शीघ्र ही बागम का ज्ञाता बन जाता है ।
टीकाकत्री श्री १०५ विशुद्धमविभी
त्रिलोकसार ग्रंथ की हिन्दी टीका लिखकर जब इन्होंने देखने के लिए मेरे पास भेजों तब मैं आश्चर्य में पड़ गया । जब ये सागर के महिलाश्रम में पढ़ती थीं और में इन्हें पढ़ाता था तबसे इनके क्षयोपशम में अवनि अन्तरीक्ष जैसा अन्तर दिया। मुझे लगा कि इसका क्षयोपशम तपश्चरण के प्रभाव से ही इतनी वृद्धि को प्राप्त हुआ है । वास्तविक बात है भी यहीं । द्वादशाङ्ग के विस्तार का अध्ययन गुरुमुख से नहीं हो सकता, वह तो तपश्चरण के प्रभाव मे क्षयोपशम में एक साथ आश्चर्यजनक वृद्धि होने से ही सम्भव हो सकता है। मुझे स्वयं भी त्रिकसार का गणित नहीं माता परंतु इनके द्वारा निरूपित पति की विविध चीतियों बेचकर बहुत हुआ ।