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। २५ ) श्री दि० जैन महिलाश्रम सागर को एक छात्रा सुमित्राबाई आज विशुद्धमति माता के रूप में जन जन की पूज्य हई और उसने त्रिलोकसाद जैसे गहन ग्रन्थ की विस्तृत हिन्दी टीका की, यह देख मुझे अपार हर्ष हो रहा है माशा करता कामा पर भी अनेक पग्यों को टीकाएं होंगी। श्री १०८ अजितसागरजी महाराज भी जो उपयुक्त माताजी के विधागुरु हैं और जिन्होंने संस्कृत प्राकृत भाषा के ग्रन्थों में इनका प्रवेश कराया है. त्रिलोकसार को इस टोका को देखकर अपने परिणम को सफल मान रहे हैं।
सम्पादन ___ सिद्धान्तभूषण श्री रतनचन्द्र जी मुस्पार, सहारनपुर और बी चेतनप्रकासजी पाटनी, किशनगढ़ ने इस अन्य के सम्पादन में भारी प्रम किया है। श्री रतनचन्द्रजी मुख्त्यार पूर्वभव के संस्कारी जीव हैं। इस भव का अध्ययन नगण्य होने पर भी इन्होंने अपने अध्यवसाय से जिनागम में अच्छा प्रवेश किया है
और प्रवेश ही नहीं, ग्रन्थ तथा टीकागत अशुद्धियों को पकड़ने की इनकी अद्भुत क्षमता है। इनका यह संस्कार पूर्व भवागत है. ऐसा मेरा विश्वास है । त्रिलोकसार के दुरूह स्थलों को इन्होंने सुगम बनाया है और माधवपन्द्र विद्यदेवकृत संस्कृत टीका सहित मुद्रित प्रति में जो पाठ छूटे हुए ये अथवा परिवर्तित हो गए थे उन्हें आपने अपनी प्रति पर पहले से ही ठीक कर रखा था। पूना और च्यावर से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों से जब मैंने इस मुद्रित टीका का मिलान किया तब श्री मुख्त्यारजी के द्वारा . संशोधित पाठों का मूल्याङ्कन हुआ।
पाठ भेद लेने के बाद मुद्रित प्रति में इतना अधिक काट कूट हो गया कि उसे सोधा प्रेस में नहीं दिया जा सका था। मुझे अवकाश नहीं था और श्री माताजी तथा मुख्त्यारजी को संस्कृत का विशिष्ट अभ्यास न होने से संस्कृत की प्रेस कापी करना मुकर नहीं था। इसलिए असमंजस हो रही थी। इसी बोच में किशनगढ़ निवासी श्री चेतन प्रकाश जी पाटनी, प्राध्यापक, जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर का पाठभेद लेते समय निवाई में सागमन हुआ तथा उन्होंने पाठभेद लेने में पर्याप्त सहयोग दिया। उनकी संस्कृत भाषा और गणित विषय सम्बन्धी क्षमता देखकर मुझे लगा कि यह काम इनके द्वारा अनायास हो सकता है । प्रसन्नता की बात थी कि उन्होंने अपना सहयोग देना स्वीकृत कर लिया।
श्री चेतनप्रकाशजी उन पण्डित महेन्द्रकुमारजी पाटनी काव्यतीर्थ किशनगढ़ के सुपुत्र है। जो अब श्री १०८ श्रतसागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ले चुके हैं। पं० महेन्द्र कुमारजी प्रकृति के शान्त और स्वाध्याय के रसिक हैं। एक बार भारतवर्षीय दि. जैन विद्वत्परिषद् के द्वारा सायर में आयोजित शिक्षण शिविर के समय लगभग एक माह तक हमारे सम्पर्क में रहे थे। श्री चेतनप्रकाशजी को स्वाध्याय को रसिकता अपने पिताजी से विरासत में मिली हुई है । मैं पाठभेदों से युक्त अपनी मुद्रित प्रति इन्हें सौंफ कर निवाई से वापिस चला आया। इन्होंने प्रेस कापी कर मुद्रण का काम शुरू कराया। इनके एक वर्ष के कठिन परिश्रम के बाद ही त्रिलोफसार का यह संस्करण सामने आ सका है।