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________________ । ३१ । { गा० ५५ ) । ३. एक पंक से प्राप्त होकर दो दो की वृद्धि को प्राप्त होतो हुई केवलज्ञान के प्रमाण से एक अंक हीन तक विषम धारा होती है ( गा. ५६ ) । ४. जो संख्याए' वर्ग से उत्पन्न होती हैं उन्हें कृतिघास कहते हैं (गा०२८)। 1. जो मंग्याएं स्वयं किमी के वर्ग से उत्पन्न नहीं होती वे संख्याएँ प्रकृतिधारा की है ( मा० ५.)। ६. किसी भी संख्या को तीन बार परस्पर गुणा करने से जो संख्या आती है, वह धनधाम की संख्या है ( गा०६०)। ७. सर्वधारा में से धनधारा के स्थानों को कम कर देने पर केवल ज्ञान पर्यन्त समस्त स्थान अघनधारा स्वरूप है ( गा.६१)।८. जो संख्याएँ वर्ग को उत्पन्न करने में समर्म है उन्हें व गंमातृक कहते हैं (गा. ६२ ) । . जिन संख्याओं का वर्ग करने पर वर्ग संख्या का प्रमाण केवलज्ञान से आगे निकल जाता है ये सब संख्याएं अवर्गमातृक हैं ( गा० ६३ ) । १०. जो संख्याएँ धन उत्पन्न करने में समर्थ हैं उन्हें धनमातृक कहते हैं। इसके स्थान एक को आदि लेकर केवलज्ञान के बासनघनमूल पर्यन्त है ( गा०६४ । । ११. जिन संख्याओं के धनफल का प्रमाण केवलज्ञान के प्रमाण से आगे निकल जाता है. ये सब संस्थाएं अधनमातृक है ( मा० ६५) । १२. जिस धारा में दो के वर्ग से प्रारम्भ कर पूर्व पूर्व के स्थानों का वर्ग करते हुए उत्तर उत्तर स्यान प्राप्त होते हैं उसे विरूपवर्गधारा कहते हैं । इस धारा का वर्णन (६६-७१) सात गाथाओं में किया गया है। "अवरा बाइयलद्धी" गरथा ७१ में नेमिचन्द्राचार्य ने जघन्यक्षायिक लन्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों का और "वरख इपलहिणाम" | १२ द्वारा शिकधि के उत्कृष्ठ अविभागप्रतिच्छेदों का उल्लेख किया है, जिसे टोकाकार ने स्पष्ट किया है कि ( ततोऽनन्तस्थानानि गत्वा तियंगस्य संयतसम्यग्दृष्टो जघन्यक्षायिक सम्यक्त्वरूपलधेर विभागप्रतिच्छेदाः) पर्यायनामा बघन्य लम्ध्यार तज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों के प्रमाण से अनन्त स्थान आगे जाकर तियंचगति में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव के जघन्य क्षायिक सम्यक्त्व लन्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों का प्रमाण होता है । तथा केवलज्ञान के प्रथम वर्गमूल का एक वार वर्ग फरने पर उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि के अविभाग प्रतिच्छेदों की सत्पत्ति होती है। इस विरूपवर्गधारा के मध्यम स्थानों में १० बाशियां प्राप्त होती हैं जो पृ.६५, ६६ पर दृष्य हैं। १३. द्विरूपधन धारा में उपलब्ध वर्गरूप राशियों की जो घनरूप राशि है उनको धारा को द्विरूपचनधारा कहते हैं। इसका वर्णन छह गाथाओं ( ७५-६२) में किया पया है। १४. धन राशि का पुनः घन करने का नाम घनाघन है। विरूप वर्गधार में जो जो राशि वर्ग रूप है उस प्रत्येक राशि का घनाधन इस धारा में प्राप्त होता है। इसका विवेचन आठ गायामों ( ८३.-.) द्वारा किया गया है। गा०५४ से २० तक किये जाने वाली धाराओं के विवेचन के मध्य वर्ममूल, घनमूल, (पा० ६८) जोवराशि, पुदगलराशि, कामशशि, ज्याकाश, प्रतराकाश (1०६६) मंद्रव्य. अघमंद्रव्य, मगुरुल घुगुणा अविभागप्रतिच्छेव, पर्यायज्ञान ( गा.७०) जघन्यक्षायिक ब्धि, अष्ट म्मूल आदि (गा०.५) तथा बर्गशलाका और अर्धच्छेद ( गा० ७६ ) का भी कथन किया गया है । संख्या प्रमाण का विवेचन समाप्त हुआ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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