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________________ । ३० । हो उसका पुनः शलाकात्रय निष्ठापन करना चाहिये। उसके बाद उत्पन्न होने वाली महाराशि में बीस कोडाकोड़ी सागर प्रमाण कल्पकाल के समय, इनमे भी असरूपात कोर गुगणे जितिनंघमाग गयान, इससे भी असंख्यातगुणे अनुभागबंधाध्यवसाय स्थान और इनसे भी प्रसंख्यातगुणे योग के ( मन, वचन काय के ) उत्कृष्ट अविभाग प्रतिच्छेद स्वरूप ये चार राशियो मिलाकर पूर्वोक्त प्रकार पुनः शलाकात्रय निष्ठापन करने से जो महाराशि उत्पन्न होती है वही जघन्यपरीतानन्त का प्रमाण है। इस जघन्यपरीतानन्त का विरलन कर प्रत्येक अंक पर इसी को देय देकर परस्पर गुणा करने से जघन्ययुक्तानन्त की प्राप्ति होती है। इस जघन्ययुक्तानन्स की जितनी संख्या है उतनी संख्या प्रमाण हो अभध्यराशि है। जघन्य युक्तानन्त का वर्ग करने से जघन्य अनन्तानन्त प्राप्त होता है । इस महाराशि का पूर्वोक्त प्रकार शलाकात्रय निष्ठापन करने से जो मध्यम अनम्तानन्त उत्पन्न हो उसमें सम्पूर्ण जीव राशि के अनन्त भाग प्रमाण सिद्धराशि, इससे अनन्तगुणी निगोद राशि, सम्पूर्ण वनस्पतिकाय शशि, जीव राशि से अनन्त गुणी पुद्गल राशि, उससे भी अनन्तगुणे तीनों काल के समय और काल राशि से अनन्त. गुणी मलोकाकामा को प्रदेश राशि अर्थात् अनन्त स्वरूप इन छः राशियों का क्षेपण करने से जो योगक - ननदो उसका पन: शलाकात्रय नियापन करने से उत्पन्न होने वाली महाराशि में धमंद्रध्य और ५. मद्रव्य के अगुरुल घुगुण के अविभागीप्रतिच्छेद मिलानेसे उत्पन्न होने वाली राशि का पुन। शलाकात्रय निष्ठापन करने में जो महाराशि रूप लप प्राप्त होपा वह भी केवलज्ञान के बराबर नहीं होगा, अत: केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में से उक्त महाराशि घटा देने पर जो लम्म उपलब्ध हो उसे वैसे का वैसा उसी में मिला देने पर केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदों के प्रमाण स्वरूप उत्कृष्ट अनन्तानन्त प्राप्त होता है। जितने विषयों को ध तज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे संख्या कहते हैं उससे बाहर जितने अधिक विषयों को अवधिज्ञान युगपत प्रत्यक्ष मानता है उसे असंख्यात कहते हैं और अबाधिज्ञान के विषय से बाहर जिलने विषयों को केवलज्ञान युगपत् प्रत्यक्ष जानता है उसे अनन्त कहते है। गा० ५२ ) मात्र केवलज्ञान का विषय होने से अपुद्गल परिवर्तन को भी अनन्त कहा गया है किन्तु मह सक्षय अनन्त होने से परमातः अनन्त नहीं है । आय के बिना ध्यय होते रहने पर भी जिस राशि का अन्त महीं होता उसे अक्षय अनन्त कहते हैं । त्रिलोकसार ग्रन्थ में (पा. ५३ से १० तक ) चौदह धाराओं का वर्णन है जो अन्यत्र नहीं पाया जाता। नोट:-संस्कृत टीकाकार ने चौदह धाराओं को स्पष्ट करने के लिए अंकसंदृष्टि में उत्कृष्ट अनन्तानन्त स्वरूप केवलज्ञान का मान कहीं १६ पौर कहीं ६५५३६ माना है किन्तु हिन्दी टीका में उसे सर्वत्र ६५५३६ मानकर ही समझापा गया है। १. एक ग्रंक को आदि लेकर केवलज्ञान पर्यन्त के सर्व अंकों को सबंधारा कहते हैं। (पा-५४) १. दो के अछु से प्रारम्भ कर दो दो को वृद्धि को प्राप्त होती हुई केवलज्ञान पर्यन्त समधारा होती है
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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