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त्रिलोकसार
पाया: ९५७-९५८-१३९
सीता और सुदर्शन में भद्रा नाम की देवकुमारियाँ रहती हैं। ये हाथ में दोन छत्र धारण कर अति प्रमोद युक्त होती हुई जिन माता की सेवा करती है।
इसके बाद उत्तरदशागत विजयकट में बलभूषा, वैजयन्त में मिश्रकेशी, जयन्त में पुण्डरीकिणी, अपराजित में वाणी, कुण्डल में आशा, रुचक में सत्या, रत्नवत् में ह्री और रत्न में श्री देवियाँ रहती हैं। ये सभो जिनेन्द्र भगवान के जन्मकाल में चंवर धारण कर अतिप्रमोदपूर्वक जिनमाता की सेवा करती है ।
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पुच्चे विमलं कूलं णिच्चालोयं सयंपदं वरे । णिच्चुओदं देवी कमसो कणया सदादिदद्दा || ९५७ ।। कणयादिचिच खोदामणि सम्बदिसम्पसनद देति । वित्यरजम्मकाले कूलं वेलुरियरुजगमदो ।। ९५८ ।। मणिकूढं रज्जुसममि रुजगा रुजगकिचि हजगादी | कंता रुजगादिपा जिणजादयकम्मकदिकुमला ।। ९५९ ।।
पूर्वयो: त्रिमले कटं नित्यालोक अपरयोः ।
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नित्योद्योतं देव्यः क्रमशः कनका शतादिदा ।। ६५७ ।। कनकादिचित्रा सौदामिनी सर्व दिशा प्रसन्नतां दधते । तीर्थंकर जन्मकाले कुटं वैड्यं रुचकमतः । ६५८ ||
मणिकूट राज्योत्तममिहू रुचका रुचककीर्तिः रुचकादिः । कान्ता रुचकादिप्रभा जिनजातककर्म कृति कुशलाः ॥ ३५४ ॥
god | चाभ्यन्तरकूटेषु तावत्पूर्वविशि बिसलंकूट बक्षिण दिशि नित्यालो पर विशि स्वयंप्रभं उत्तरदिशि मिश्योद्योतमिति चत्वारि कुटानि । मत्रस्थिताः वेष्यः क्रमशः सदा ॥ ६५७ ॥
कनका
करणया । कनकचित्रा सौदामिनी चतस्ररता वैष्य: तीर्थकरणन्मकाले सर्व प्रसन्नतां बधने । तो परे पूर्वाविविक्षु मंजूयं च ॥ १५८ ॥
मरिण । मणिकूट राज्योत्तममिति धरवारि कूटानि इहल्या देव्यः स्वकर चचककोतिः थककाला चकप्रभा चतस्रो वेथ्यो जिनखातकर्मकृती कुशलाः ।। ६५६ ।।
गाथार्थ :- रुचक पर्वत के अभ्यन्तर कूटों में से पूर्व और दक्षिण में क्रमशः त्रिमल और नित्यालोक तथा पश्चिम श्रोर उत्तर में क्रमशः स्वयम्प्रभ और नित्योद्योत नाम के कूट हैं। इनमें कम से कनका, शतह्रदा, कनकचित्रा और सौदामिनी ये चार देवियों रहती हैं। ये
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तीर्थंकर के जन्मकाल