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त्रिलोकसार
हिन्दी टीकाकार का मङ्गलाचरण * श्रीमत्पार्श्व जिनेन्द्रपादयुगलं, वार्णी जिनास्योद्गतां सूरीन श्रीश्वन्दनीयचरणान् श्रीनेमिचन्द्रादिकान् | शान्ति बीपियति, पालोदधिं सन्मति
धर्माधाजितं महागुणवृत्तं मव्यावलीसंनुतम् ॥१॥ त्वा शुद्धहृदा महर्षिनिचयं भव्यधमोहच्छिदे
टीकां मन्दजनप्रबोधजननीं त्रैलोक्यसारस्य वै । शिवसूरिभूरि कृपया प्राप्ताविकासता संत्राता श्रुतसागरेण सुनिना याचार्यकन्पेन च ||२|| गुरूणां कृपया सैषा, विशुद्धमतिसंज्ञिता ।
प्रारब्धकार्य निर्वाह दोषादक्षा भवत्वरम् ||३||
गाथा : १
* हिन्दी भाषानुवाद -
सर्व प्रथम ग्रन्थ के प्रारम्भ में श्रीमन्नेमिचन्द्राचार्यविरचित प्राकृत गाथाबद्ध श्री त्रिलोकसार नामक ग्रन्थ की संस्कृत टीका के रचयिता श्रीमन्माधव चन्द्राचार्य मङ्गलाचरण करते हुए कहते हैं— दीनों लोकों को चन्द्रमा के समान आह्लाददायक श्री जिनेन्द्र भगवान् को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अल्पज्ञों के ज्ञानके लिए विधिपूर्वक त्रिलोकसार की यह टीका मेरे द्वारा प्रकट की जाती हैरची जाती है ॥१॥
गुग्गों से परिपूर्ण, अनुपम धर्म के धारक तथा जिनमतके विरोधी वादियों के समूह को निरन्तर नीत करने वाले श्री अकलङ्क आदि आचार्य जयवन्त हों ॥ २ ॥
यतः इस जगत् में जिसकी प्रवृत्ति समस्त विद्वज्जनों को आश्चयं उत्पन्न करने वाली हुई थी मत्तः बढ् निष्कलंक जिनशासन मिध्यामतरूपी सघन अन्धकार के समूह को नष्ट करे || ३ ||
इस युग के अन्तिम तीर्थप्रवर्तक श्री भगवान् वर्धमान स्वामी हैं। उन्होंने श्रीसम्पन्न निर्वाध अनुपम, विरोधरहित, इन्द्रियादि की सहायता से रहित तथा युगपत् प्रवर्तने वाले केवलज्ञान रूपी तृतीय नेत्र के द्वारा समस्त पदार्थों के समूह को देख लिया था। वे देवेन्द्र, नरेन्द्र और मुनीन्द्र आदि के समूह के संरक्षक थे । तीर्थङ्कर नामक पुण्य प्रकृति की महिमा के अवलम्बन से प्रकट होने वाले समवसरण, अष्टप्रातिहार्य तथा अनेक अतिशयरूप बहिरङ्ग लक्ष्मी से विशिष्ट थे। उन्होंने जन्म जरा मरण आदि
१ श्री श्रुतसागर जी