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गाथा:१
लोकसामान्याधिकार
अठारह दोषों को नष्ट कर दिया था और आत्मा के समस्त प्रदेशों में प्रकट होने वाले अनन्तचतुष्टयादि गुण समूहरूप अन्तरङ्ग लक्ष्मी के कारण उनके परमात्मपद का प्रभाव प्रकट हुआ था । ऐसे श्रीवर्धमान तीर्थङ्कर परमदेव ने सर्व भाषारूप परिणमन करने वाली दिव्यध्वनि के द्वारा जिस करणानुयोग नामक परमागम का अर्थरूप से निरूपण किया था, उसको शब्द रचना सप्त ऋद्धियों से युक्त तथा समस्त विद्याओं के परमेश्वर श्रुतकेवली गौतम स्वामी ने की थी। तदनंतर ज्ञान विज्ञान से सम्पन्न निष्पाप गुरुओं को परम्परा से वह आज तक अव्युच्छिन्न रूप से चला आ रहा है। जिस अर्थ का निरूपण श्री वीतराग सर्वज्ञ वर्धमान स्वामी ने किया था उसी अर्थ के विद्यमान रहने से वह करणानुयोग परमागम केवलज्ञाम के समान है, परन्तु अबसपिणी काल के प्रभाव से लोगों की बुद्धि कम हो गई है इसलिये चारों अनुयोग रूपी शास्त्र समुद्र के पारगामी भगवान् नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेव, उस करणानुयोग नामक परमागम का संक्षेप से वर्णन करना चाहते हैं । वे अपने शिष्य चामुण्डराय को प्रतिबुद्ध करने के बहाने समस्त शिष्यों को समझाने के लिये श्रिलोकसार नामक ग्रन्थ की रचना करते हुये ग्रन्थ के प्रारम्भ में निर्विघ्न रूप से शास्त्र समाप्ति आदि फल समूह का विचार कर मङ्गलाचरण के रूपमें विशिष्ठ इष्ट देवता का स्तवन करते हैं
बलगोविंदसिहामणिकिरणकलावरुणचरणणहकिरण । विमलयरणेमिचंदं तिवणचंदं णमंसामि ।। १ ॥ बलगोविन्दशिखामणिकिरणकलापारुणचरणनखकिरणम् ।
विमलतरनेमिचन्द्र त्रिभुवनचन्द्रं नमस्यामि ॥१॥ अस्याः कथ्यते । मंसामि नमस्यामि नमस्करोमि । के। विमलयरऐमिचन्द विमलसरनेमिछन्त्र, विगत' मलं ध्यभावात्मकं प्रास्मगुगघातिकमर देहपातयो' वा यस्मारसो विमलः अयं विशुशेश्वयस्य परमकाष्ठामधिष्ठित: सन्मन्येवामप्यारमाषितानां कर्ममलक्षालामहेतुत्वावतिशयन विमलो विमलसरः । अनेनासायातिशयः प्रकाशितः । नेमिचन्द्रो वाविशतीर्थकरपरमदेवः बिमलसरनेमिनास्तं" । कर्ममूतम् ? 'त्रिभुवनचन्द्र त्रिभुवनानी चन्न इव चन्द्रः प्रकाशकस्तं त्रिलोकाना म्वरूपोपवेशक तस्वरूपपरिच्छेवक बेत्यपः । एसेन वागतिशयः प्राप्स्यतिशयो' वा प्रतिपाक्तिः । अवसरोधितं तविशेषणं । प्रयाणां भुवमान स्वरूपनिरूपणे बद्धम्यवसायत्याचार्यस्य वामज्योतिषा ज्ञानज्मोतिषा व तत्स्वरूपप्रकाशकत्व नमस्कारकरणं समुचितमेवेति । पुनरपि कपमूतं ? 'बखगोविन्दशिखामरिणकिरणालापावरचरणनसकिरणं' मिजपारपपावनतपनपनामचुराप्रसा
१ विगतं बिनप्टं ( ब०, म०)। २ आत्मगुणघातक कर्म ( ब०, प० । ३ देहमप्तधातवो (ब०, प०)! ४ द्वार्षिशस्तीर्थकरपरमदेवः ( ब०, प०)। ५ विमलतरण्चासौ नेमिचन्द्रसां (ब०, ५० )। ६ प्राप्त्यति भयो बा ( शानातिशयो वा टि० ब०)। ५ चैतविशेषणं ( म०, प.)। ८ दलगोविन्द सिडामणिकिरणफलावरुणचरणणहकिरणं (ब०,५०)।