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गाय।। ५५४-५५२
वैमानिक लोकाधिकार
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विशेषार्थ :- आनन्द स्वरूप वादित्रों के, 'जय' के मोर स्तुतियों के शब्दों से अपने देव जन्म को जान कर प्राप्त हुए वैभव एवं अपने परिवार को देख कर वे देव अर्थविज्ञान से अपने पूर्व भव को जान कर धर्म की प्रशंसा करते हैं, तथा सरोवर में हमान करने के बाद पट्ट स्वरूप अभिषेक एवं अलङ्कारों को प्राप्त कर सम्यन्दृष्टि देव स्वयं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं तथा मिथ्यादृष्टि देव अन्य देवों के द्वारा सम्बोधे जाने के उपरान्त जिन पूजन करते हैं। ये ( सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि ) सभी देव सुखसागर में निमग्न होने के कारण अपने प्रतील काल को नहीं जानते । अथ तेषां देवानां सत्कृत्यमाह
महपूजासु दिणाणं कन्हाणेसु य पंजांति कप्पसुरा । अहमिंदा तत्थ ठिया णमंति मणिमउलिघडिदकरा || ५५४ || महापूजा जिनानां कल्याणेषु च प्रयान्ति कल्पसुरा: । अहमिन्द्राः तत्र स्थिता नमन्ति मणिमौलिघटितकराः ।। ५५४।।
मह। जिनानां महापूजास तेषां पञ्चमहायागेषु च कल्पनाः सुराः प्रयान्ति । धमिन्द्रास्तु तत्र स्थित एक मरिगमौलिघटितकराः संतो नमन्ति ॥ ५५४ ॥
चन देवों के समीचीन कार्यों को कहते हैं।
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मामा:-- कल्पवासी देव जिनेन्द्रों की महापूजा और उनके पश्चकल्याणकों में जाते हैं, किन्तु अहमिन्द्र देव वहीं स्थित रद्द कर मणिमय मुकड़ों से अपने हाथों को लगा कर नमस्का करते हैं ।। ५५४ ॥
विशेषार्थ :- कल्पवासी देव तीर्थकरों की महापूजा और उनके पश्चकल्याण महोत्सवों में जाते हैं, किन्तु अद्रि देव ( तो ) अपने हो स्थान पर स्थित रद्द कर मणिमय मुकुटों पर अपने हाथ रख कर नमस्कार करते हैं ।
अथ सुरादिसम्पत् केषां भवतीत्युक्तं आह
विविधतवरणभूमा णाणसुची सीलवत्थ सोम्मंगा | जे सिमेव वस्सा सुरलच्छी सिद्धिलच्छी य ।। ५५५ ॥ विविधतपोरल भूषाः ज्ञानशुत्रयः शीलवस्त्रसौम्याङ्गाः। ये तेषामेव वश्या सुरलक्ष्मीः सिद्धिलक्ष्मीश्च ॥ ५५५ ॥
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विवि में विविधतपोरटन भूषाः ज्ञानशुचयः शीलवस्त्र सौम्याङ्गास्तेषामेव सुरलक्ष्मीः सिद्धिलक्ष्मीच वश्या भवति ॥ ५५५ ॥
देवादिक सम्पत्ति किन जीवों को प्राप्त होती है, उसे कहते हैं-
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