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पिलोकसार
पाया : १५६ से १५८
गायार्ष:-मोक्ष लक्ष्मी एवं सुरलक्ष्मी उन्हीं जीवों के वश में होती है, जिनके अङ्ग निरन्तर नाना प्रकार के तपों से विभूषित, ज्ञान से पवित्र और शील रूपी वस के संयोग से सौम्य रहते
विशेषार्थ:-जो नाना प्रकार के तप रत्नों से विभूषित, ज्ञान से पवित्र और शील रूपी वस्त्र के सम्पर्क से सोम्य शरीर वाले हैं, वे ही जीव सुरलक्ष्मी एवं मोक्षलक्ष्मी को वश में करते हैं। इसानोमष्टमभूमिस्वरूपमाहु
तिवणमुडारूढा ईसिपमारा धरहमी रुंदा । दिग्या इगिसगरज्जू महजोयणपमिदवाहला ।। ५५६ ।। त्रिभुवनमूर्धारूढ़ा ईषत् प्राग्भारा घराष्टमी रुन्द्रा।
दीर्घा एकसप्तरज्जू अष्ट योजनप्रमितबाहल्या ॥ ५५६ ॥ तिहबरण । त्रिभुवनमूर्षारता ईषत् प्राम्भारसंजा मयुमो घरातल्या चन्द्र बंध्यं च एकसप्तरज्जू भवतः । तस्या बाहल्यमष्टयोजनप्रमितम् ॥ ५५६ ॥
अब अष्टम भूमि का स्वरूप कहते हैं :
नापार्थ:-तीन लोक के मस्तक पर आरूढ ईषत्प्रारभार नाम वाली आठवीं पृथ्वी है, इसकी चौड़ाई और लम्बाई कम से एक एवं सात राजू तथा बाहुल्य आठ योजन प्रमाण है ।। ५५६ ।।
विशेषार्थ :- सर्वार्थसिद्धि इन्द्रक विमान के ध्वजादण्ड से बारह योजन ऊपर जाकर अर्थात तीन लोक के मस्तक पर मारूद ईषप्रारभार संज्ञावाली अष्टम पृथ्वी है। इसकी चौड़ाई एक मजू, लम्बाई ( उत्तर-दक्षिण ) सात राजू एवं मोटाई आठ योजन प्रमाण है। अथ तन्मध्यस्थसिद्धक्षेत्रस्वरूपं गाथा दयेनाह
तम्मज्के रूप्पमयं छत्तायारं मणुस्समाहिवासं । सिद्धक्खेचं मझडवेहं कमहीण बेहुलियं ।। ५५७ ।। उचाणट्टियमंते पचं व तणु तदुवरि तणुवादे । अडगुणड्डा सिद्धा चिट्ठति अणंतसुइतित्ता || ५५८ ।। तन्मध्ये रूप्यमयं छत्राकार मनुष्यमहीन्यासं । सिद्धक्षेत्र मध्येहवेधं क्रमदीनं बाहुल्यम् ॥ ५५७ ।। उत्तानस्थितमन्ते पात्रमिव तनु तदुपरि तनुवाते। अष्टगुणाढयाः सिद्धा तिष्ठन्ति अनन्त सुखतृताः ।। ५५८ ॥