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________________ ४७२ त्रिलोकसाथ भाणंद तूरयदिरषेण जम्मं विद्युझ से पचं । दट्ठूण सपरिवारं गयजम्मं 'मोहिणा जव्वा ।। ५५१ ।। धर्म पसंसिदूण हाण दहे भिसेयलंकारं । लद्धा जिणाभिसेयं पूजं कुच्वंति सद्दिकी ।। ५५२ ॥ रोहियाचि मिच्दा पच्छा जिणपूजणं पकुब्वंति । सुहसायरमझमया देवा ण विदति गयकाल || ५५३ ।। पाया: ५५१-५५२-५५३ तुम विबुध्यस्वं प्राप्त सपरिवारं गतजन्म अवधिना ज्ञात्वा ॥ ५५९ ॥ धर्म प्रशंस्य स्नात्वा ह्रदे अभिषेकालङ्कारं । लब्ध्वा जिताभिषेकं पूजां कुर्वन्ति सट्टष्टयः ।। ५५२ ।। सुरबोधिता अपि मिथ्या पश्चाजिनपूजनं प्रकुर्वन्ति । सुखसागरमध्यगता देवा न विदन्ति गतकालं ॥ ५५३ ।। झारखंड । श्रानन्दर्य रवेण जयस्तुतिश्वेण वेवं देवजन्मेति विकुष्य एवं प्राप्तं स्वपरिवारं च दृष्ट्या विज्ञानेन गतजन्म व मारवा ।। ५५१ धम्मं पसंसि । धर्म प्रसस्य हवे स्तारमा पट्टाभिषेक सुरसा सहयः स्वयमेव विनाभिषेकं पूजां च कुर्वन्ति ॥ ५५२ ॥ रोहिया। मिथ्यायोऽपि सुरप्रतिबोधिता पश्चा जिनपूर्ण प्रकुर्वन्ति से सर्वे देवा: सुखसागरमध्यगताः सन्तो गतकालं न विवन्ति ॥ ५५३ ॥ देवों के उत्पन्न होने के तदन्तर जो कार्य विशेष होते हैं। उन्हें तीन गाथाओं द्वारा कहते हैं : गावार्थ :- इनके जन्म को जानकर अन्य देव आनन्द रूप बाजों के, 'जय जय' के एवं अनेक स्तुतियों के शब्द करते हैं उन शब्दों को सुन कर प्राप्त हुए वैभव और अपने परिवार को देख कर तथा अवधिज्ञान से पूर्वजन्म को ज्ञात कर धर्म की प्रशंसा करते हुए सर्व प्रथम सरोवर में स्नान करते हैं, फिर अभिषेक और अलङ्कारों को प्राप्त होकर सम्यग्दृष्टि जीव तो स्वयं जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक पूजन करते हैं, किन्तु मिध्यादृष्टि देव अन्य देवों द्वारा सम्बोधित किए जाने के पश्चात् जिन पूजन करते हैं । सुखसागर के मध्य डूबे हुए ये सभी देव अपने व्यतीत होते हुए काल को नहीं जानते ।। ५५१, ४५२, ५५३ ॥ १ 'महिना यो' इति पाठान्तर सूचना 'ब' प्रतो ।
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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