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________________ गाथा । ५४६-440 वैमानिकलोकाधिकार विशेषार्ष :-सौधर्म इन्द्र, उसी को गची नाम की पट्ट देवांगना उसी के सोमादि चार लोकपाल, सानत्कुमारादि दक्षिणेन्द्र, सर्व लोकान्तिक देव और सर्व ही सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होने वाले देव अपने अपने स्थान से व्युत हो मनुष्य पर्याय प्राप्त कर, उत्कृष्ट ( निरतिचार ) संयम के धारी होते हुए नियम से उसी पर्याप में मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रथ त्रिषष्टिशलाकापुरुषाणां पदवीमप्राप्नुवतां नामान्याह परतिरियगदीहितो मवणनियादो य गिराया जीवा | ण लहंते ते पदविं तेवहिसलामपुरिसाणं ।। ५४९ ।। मरतियंगतिम्यां भवनत्रयाच निर्गठा जीवाः । न लभन्ते ते पदवी त्रिपष्टिशलाकापुरुषाणाम् ॥ ५४६ ॥ णरतिरिय । नरतिगतिम्पा भवनत्रयाच्च निर्गता जीवास्ते त्रिशलाकापुरुषाण पदी मलभन्ते ॥ ५४९ ॥ जो वेसठशलाका पुरुषों के पद को प्राप्त नहीं करते, उनके नाम कहते हैं गाथार्थ :-जो जीव मनुष्यगति, तियश्चगति और भवनत्रिक से निकल कर पाते हैं. ये नियम से प्रेसठशालाका पुरुषों की पदवो को प्राप्त नहीं करते हैं। __ चतुर्थादि नरको से निकले हुए जीव भी श्रेसठशलाका पुरुषों की पदवी को प्राप्त नहीं होते || ५४६ ।। अथ देवानामुत्पत्तिस्वरूपमाह सुहमयणगे देवा जायते दिणयरोव्व पुव्यणगे। अंतोमूहुत्त पुण्णा सुगंघिसुहफासचिदेहा ।। ५५० ।। सुखशयनाने देवा जायने दिनकर इव पूर्वनगे। पन्तमुहर्ते पूर्णाः सुगंधिसुखस्पशंशुचिदेहाः ।। ५५० ॥ सुहसयण । पूर्वाचले दिनकर इवान्तर्मुहूर्ते षट्पर्याप्त्या पूर्णः सुगन्धिसुनस्पशंधिवहारते बासुखशयनाग्रे वायन्ते ॥ ५५० ॥ देवों की उत्पत्ति का स्वरूप कहते हैं गावार्थ:-जिस प्रकार पूर्व विल पर सूर्य का उदय होता है, उसी प्रकार देव सुख रूप पाय्या पर जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्त में छह पर्याप्तियों को पूर्णकर, सुगन्धित सुख रूप स्पा से युक्त एवं पवित्र, गरीर को धारण कर लेते हैं ।। ५५० ॥ अथ तश्रोत्यभान तदनन्तरं कृत्यविशेष गाथात्रयेणाह
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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