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________________ ५२० चिलीकाप पाया : ६१७ कहीं घटी नहीं है। इसके बाद अर्थात् समरुन्द्र के ऊपरी भाग से २५००० योजन की ऊंचाई तक कमिक हानि हुई है । यथा - जबकि १ योजन की ऊंचाई पर योजन की हानि होती है, तब २५००० योजन की ऊंचाई तक कितनो हानि होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर ( XXX2 ) = २२७२६] योजन पाण्डुक वन की हानि प्राप्त हुई। इस हानि को सौमनस के अभ्यश्वर मैव व्यास ३२७२६] योजनों में से घटा देने पर (३२७९४६ २२७९१ ) - १००० योजन ( पाण्डुक वन सहित ) मेरु व्यासरूप पाण्डुक वन के बाह्य व्यास का प्रमाण प्राप्त होता है। - पाण्डुक वन की हानि २२७२६ के अंश अंशी मिला लेने पर अर्थात् भिन्न तोड़ लेने पर योजन होते हैं। पंयोजन को हानि पद १ योजन की ऊंचाई है, तो योजन हानि पर योजन की ऊंचाई योजन पर कितमी ऊंचाई होगी ? इस प्रकार वैराशिक करने पर (३५००० - २५००० प्राप्त हुई । अर्थात् सोमनस के समइन्द्र व्यास ११००० योजन के ऊपर से प्रत्येक एक योजन की हानि होना प्रारम्भ हुई जो मेरु की २५००० योजन की ऊंचाई तक होती गई है। अर्थात् सौमनस के समरुन्द्र व्यास से पाण्डुक वन तक सुमेरु की ऊँचाई २५००० योजन है । अतः मेरु की चौड़ाई में वहीं तक क्रमिक हानि हुई है। इसके बाद सुमेरु पुनः चौड़ाई में ४६४ योजन युगपत् संकुचित हो जाता है, जिससे कटनी बनती है, और इसी अन्तिम कटनी पर अन्तिम पाण्डुक बन की अबस्थिति है । इस प्रकार सम्पूर्ण पर्वतों की प्रभुता को प्राप्त होने वाले अनादि निधन मन्दर महाचलेन्द्र (मेरु ) की पूरणं ऊंचाई ( चित्रा पृथ्वी के तल भाग में चौड़ाई में क्रमिक हानि होते हुए पृथ्वी तल तक की ऊंचाई १०००+ ५०० योजन ऊपर नन्दन वन + ११००० समरुन्द्र की ऊंचाई + ५१५०० योजन तक चौड़ाई में क्रमिक हानि + ११००० योजन समयन्द्र की ऊँचाई + २५००० योजन तक चोड़ाई में क्रमिक हाति ) १,००,००० (एक लाख) योजन है । अथ क्षुल्लक मन्दरस्य हानिचयानयनसूत्रमाह भूमीदो दसभागो हायदि खुल्लेसु णंदणादुरि । सवां समरुंद सोमणसुवरिंषि एमेव ।। ६१७ ॥ भूमितः दशमभागः हीयते क्षुल्लके मन्दनादुवरि । शतवर्गः समचन्द्रः सौमनसोपरि अपि एवमेव ॥ ६१७ ।। भूमियो। भूमितो वजनांश दे हानों यद्येकं योजनं स्यात्वा सहस्रयोजनहानी कियानुदय इति सम्पातिते शतवगंरूपो लग्धोदय: १०००० हलक मन्दरेषु ४ मन्वमचमादुपरितनसमरण्योदयः स्याद सोममोपरिमसम इन्द्रोप्येवमेव स्वाद । मुखे १००० भूमौ ४०० विशेषिते हानि: ८४०० क्षुल्लकमारो ८४००० एतावद्धानी ८४०० एकयोजनोदयस्य किमिति सम्पास्य चतुरशीत्या पलिते ०
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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