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त्रिलोकसार
पापा: २०६-२०७
अथ प्रथमाविपृथिव्या उत्कृष्टेन जननमरणयोरन्नरमाह
चउचीमाहुत्तं पुण ससाई पक्खमेक्कमासं च । दुगचदुलम्मासं च य जम्मणमरणंतरं णिरये । २०६||
चतुर्विशतिमुहूर्ताः पुन: सप्ताहानि पक्षा एक मासश्च ।
द्विकचतुःपण्मासान च जननमरणान्तरं निरये ॥२०॥ चवीस । यथासंख्य इति शेषः । छायामात्रमेवार्थः ॥२०६॥ प्रथमादि पृधियों में उत्कृष्ट रूप से जन्म मरण का अन्तर कहते हैं
गाभार्थः- प्रथमादि पृथ्वियों में जन्म मरण के अन्तर का प्रमाण क्रमश: चौचीस मुहत, सान दिन, एक पक्ष, एक माह, दो माह, चार माह और छह माह है ॥२०६।।
विशेषार्थ:-कोई भी जीव यदि प्रथमादि पृथ्वि यों में जन्म मरण न करे तो अधिक से अधिक यथाक्रम २४ मुहूतं, ७ दिन, १ पान, १ माह, २ माह, चार माह और छह माह तक न करे, इसके बाद नियम से जन्म मरण होगा ही होगा। लेपां दुःखप्रागलम्यमाह
मच्छिणिमीलणमेचं गस्थि सुहं दृषखमेव भगुषद्धं । णिया परायाणं अहोणिसं पच्चमाणाणं ॥२०७।।
अशिनिमीलनमा नास्ति सुखं दुखमेव अनुबद्धम् ।
निरये नैरयिकाणा अहनिश पच्यमानानाम् ॥२०॥ पग्छि । छापामानमेवाः ॥२०॥ इति मरक स्वरूपामरूपम् । नारकियों के दु:खों की अधिकता कहते हैं
गावार्थ:-नारकी मोवों को नेत्र की टिमकार मात्र भी सुख नहीं है, वे सर्वदा दुःख में ही अनुबद्ध हैं । रात विन दुःख रूपी अग्नि में ही जलते रहते हैं ।।२०।।
विशेषा-अनेक पापों के फलस्वरूप जीव नरक में जाकर निरन्तर दुःखरूपी अग्नि में जलता रहता है। नेत्र की पलक झपकने में जितना समय लगता है, उतने समय के लिए भी उसे वहाँ सुख नहीं मिलता।
नरक स्वरूपनिरूपण समाप्त हुमा | इम प्रकार श्रीनेमि चन्द्राचार्य विरचित 'त्रिलोकसार' ग्रंथ में 'लोकसामान्यापिकार'
नाम प्रथम अधिकार पूर्ण हुआ ॥१॥