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________________ णमा : ११६ से १५० भरतियरलोकाधिकार पग्यि । मग्निदिशाविषु विविध शकुलिकणावयश्चरवारः सन्ति । सिंहबपनारप्रमुखा हो एकोतकशकुलिश्रुतिप्रभृतोमामन्तरे तिष्ठन्ति इति शेया: n६१८ ॥ गिरि। हिमरजतशिखरिणतालाव्यनिरिमस्तस्यद्वीपरवाना झषमुलारियुगलानां पाये पूर्वोक्ताः कमेण स्वकीयस्वतीयनगस्य पूर्वविन तिम्ति । पश्चाइ मरिणतात पन्नास्य परिकममाणे पामते । एगोवगा। तत्रापि एकोषकाः गुहायों सम्ति मृत मृतिका मन्ति । कोषा:समें ततलवासाः कल्पा महत्तफलमोजिनो भवति ॥ २० ॥ अब कुभोगभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को आकृति और उनके रहने के स्थान पाच माया दास गावार्थ:-लवण समुद्र की पूर्वादि दिशाओं के द्वीपों में कम से एकोक, लांगुलिक, वैषाणिक और अभाषक ये चार प्रकार के मनुष्य रहते हैं तथा [ चारों विदिशाओं में कम से ] शालिकर्ण, करप्रावरण. लम्ब कर्ण और पाशकणं ये चार प्रकार के मनुष्य बहते हैं । सिंह, अश्व, श्वान, भंसा तथा वराह मुख वाले तथा व्याघ्र, घुग्घु और बन्दर सदृश मुख वाले शोर मष मुख, काल मुख, मेषमुन, पोमुख, मेघमुख, विद्य त्मुख, दर्पणमुन और हम मुख वाले मानुष पहते हैं। इनमें से आग्नेयादि विदिशाओं में शुष्कुलिकरणं आदि तथा एकोहक और शकुलिकर्ण थादि के अन्तरालों में सिंहवयन हैं प्रमुख जिनमें ऐसे आठ प्रकार के मनुष्य रहते हैं। पर्वत के मस्तक ऊपर स्थित दीपों में सषमख मादि युपलों में से जिनका नाम पहिले आता है वे चाय अपने पर्वत के पूर्वभाग में और जिनका नाम पीछे जाता है वे पश्चिम भाग में रहते हैं। ___एकोरुक आदि कुमनुष्य गुकानों में रहते हैं और वहाँ को अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं; शेष मानुष वृक्षों के नीचे रहते हैं और कल्पवृक्षों द्वारा दिए हुए फलों का भोजन करते हैं ॥ ११६ से १२०॥ विषा:-सवण समुद्र की पूर्व दिशागत द्रोपों में एकोरुक-एक जङ्घा वाले, दक्षिण में सांगलिक-पूछवाले, पश्चिम में वैषारिणक-सींग वाले और उत्तर दिशा में अभाषक अर्थात् गूगे कुमनुष्य पहते हैं। ये चारों प्रकार के कुमानुष गुफाओं में निवास करते हैं और वहाँ की अत्यन्त मीठी मिट्टी का भोजन करते हैं । तथा पाग्नेय में शषकुलि कर्ण-शकुलि सदृश कर्ण वाले, नैऋत्य में कर्ण प्रावरणामिनके कान वस्त्र में सरण शरीर का आच्छादन आदि करते हैं, वायत्य में लम्बकर्ण - लम्बे करणंवाले बोर ईशान विदिशा में शशकर्ण-सुसा सदृश कर्ण वाले कुमानुष रहते हैं। चार दिशाओं में रहने वाले एकोषक आदि और चारों विदिशाओं में रहने वाले शकुलिकर्ण आदि माठ प्रकार के मनुष्यों के आठ अन्तरालों में कम से सिंहमुख, अश्वमुख, श्यानमुख, भैसामुख, सूकरमुख, ज्याप्रमुख घुग्घूख और
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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