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त्रिलोकसाच
पापा : ३८६-३६१
रिस। निषषोपरि गन्तव्यं पञ्च सप्तपञ्चाशत् पच्च देशोना ५५७५ एतावन्मात्रमेव निवषस्योपरि गत्वा रषिः परतं याति ॥ ३६१ ॥
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तीन गाथाओं द्वारा अभ्यन्तर वीथी में स्थित सूर्य के चक्षु इन्द्रिय के स्पर्श का मार्ग निकालने के लिये कहते हैं :
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गाथार्थ :- प्रथम परिधि को ६० से भाजित करके प्राप्त वध को ६ से गुणित करने पर चक्षु के स्पर्शन का मार्ग अर्थात् चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र का प्रमाण होता है। निषषाचल पर्वत के धनुष का जो (१२३७६६६३६ ) प्रमाण है, उसको आधा करने पर जो ( ६१८८४) प्राप्त हो उसमें से (४७२६३३० ) को कम कर देने पर
शेष जो कुछ अधिक १४३२१ योजन रहा, उतना ( १४६२१ यो० ) निषध पर्वत के ऊपर आकर सूर्य अयोध्यानगरी के मध्य में स्थित चकवर्ती के द्वारा देखा जाता है। इसको ( १४६२१ यो० ) निष्पत की पार्श्व भुजा में से कम कर देने पर जो अवशेष बचता है, वह निबधाचल के ऊपर जाते हुए ५५७५ योजन होता है, अतः निषधाचल के ऊपर ५५७५ योजन जाकर सूर्य अस्त होता है ।। ३८९, ३६०, ३६१ ॥
विदोषार्थ :- प्रथम (अभ्यन्तर ) परिधि का प्रमाण ३१५०८६ योजन है, अतः ६० मुहूर्त का मन क्षेत्र ३१५०८६ योजन है, तब मुहूतं का कितना गमन क्षेत्र होगा ? इस प्रकार वैराशिक करने पर 3५५ हुये । इन्हें ३ में अपवर्तित करने पर 5 अर्थात् ९४५ अर्थात् ४७२६३ योजन चक्षु स्पर्श अध्यान [ चक्षु इन्द्रिय के विषयभूत उत्कृष क्षेत्र का प्रमाण ] प्राप्त होता है । निषधाचपर्यंत का चाप १२३७६८६ योजन है। इसका अर्धभाग (१२३७६०÷२ ) = ६१४योजन हुआ। इसमें से चक्षुस्पर्श अध्वान घटा देने पर - (६१८८४-४७२६३ ) - १४६२१ योजन और कुछ अधिक अवशेष रहता है, वह कुछ अधिक कितना है ? चाप का अवशेष भाग योजन और अध्यान का अवशेष भाग योजन है । हे पर्थात् १४६२१९६० यो० शेष रहता है। प्रथम वीथी में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषेध कुलाचल के उत्तर तट से १४६२१योजन ऊपर आता है तब अयोध्या नगरी के मध्य में स्थित महापुरुषों ( चक्रवर्ती ) के द्वारा देखा जाता है। इसको निषचाचल की पाश्र्व भुजा (२०१६६ ) में से घटा देने पर (२०१६६१४६२१ ) जो अवशेष रहता है, वह निषघाचल के ऊपर जाते हुए ५५७५ योजन होता है, मतः निधाचल के ऊपर ५५४५ योजन जाकर सूर्य अस्त होता है । अर्थात् प्रथम परिधि में भ्रमण करता हुआ सूर्य जब निषधाचल पर्वत के दक्षिण तट पर कुछ कम ५५७५ योजन जाता है तब अस्त हो जाता है । यथा
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