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यह है कि जब कोई विषय या मणित कई घण्टों के चिश्तन के बाद भी समझ में नहीं आता तब थकावट से चूर होकर मन कहता 'अब छोड़ो ! प्रातः पूज्य बड़े महाराज जी से पूछेंगे' बस महाराज श्री की इतनी स्मृति आते ही विषय समझ में आ जाता कभी भी नही समाधान हो जाता था। इसप्रकार ग्रन्थ के भावात्मक हार्द को प्रकाश में लाने के लिये जिन्होंने या जिनकी भक्ति ने यह बल प्रदान किया है तथा द्रव्यात्मक अर्थात् सम्पूर्ण प्रेस मंटर का जिन्होंने बड़ी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर पनेक त्रुटियों का शोधन किया है वे परम पूज्य, करुणा सागर तारण तरण श्रुत के समुद्र आ० क० १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज ही इस ग्रन्थ के सच्चे अनुवादक हैं ।
परमपूज्य अभीक्ष्णा ज्ञानोपयोग बालब्रह्मचारी अनन्य श्रद्धेय विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागरजी महाराज के शिक्षादान का ही यह फल है जो मैं आज गोवा भाषाको हिन्दी भाषा के रूप में परिववित करा सकी। आपने अपना मूल्य समय देकर समय समय पर त्रिलोकसार की संस्कृत सम्बन्धी कठिनाइयों को बड़ी ही सुगमता पूर्वक सुलझाया है, अतः आपके अनन्य उपकारों के प्रति भी मेरा मन अत्यन्त आभारी है। श्री पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी त्रिलोकसार, लोक विभाग, तिलोयपपत्ति और जम्बूद्वीप पत्ति से भी बहुत कुछ सहयोग प्राप्त हुआ है अतः इन ग्रन्थों का भी मेरे ऊपर अनन्य उपकार है ।
गाथा २० १७, १९, २२, २४, ८४,६६, १०२, ११७, ११०, १६५, २३१, ३२७, १५६, १६०, ३६१, ७५६ इत्यादि को बासना सिद्धि अत्यन्त कठिन थी जिसे सिद्धान्त भूषण श्री रतनचन्दजी मुख्तार अत्यन्त परिश्रमपूर्वक सुगम किया है। समय समय पर और भी अनेक स्थलों पर आपका सहयोग प्राप्त रहा । विषय की दृष्टि स आपने प्रेस मंटर को आद्योपान्त देखा है ।
८०० गाथाएँ लिखने तक तो कहीं से त्रिलोकसार की अन्य कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई किन्तु इसके बाद श्री मिलापचन्दजी गोधा लूणा पांड्या मन्दिर जयपुर के सौजन्य से करीब १६० वर्ष पुरानी एक अत्यन्त जो प्रति प्राप्त हुई जिसमें मूलगाथाएँ और गाथाओं से सम्बन्धित आकृतियों का दिग्दर्शन रमान रेखाओंक द्वारा किया गया है। इस प्रतिसे कई नवीन चित्र लिये गये हैं और जिन्हें मैं पहिले बना चुकी या आवश्यकतानुसार किन्हीं किन्हीं में इस प्रति के आधार पर संशोधन भी किया गया है । त्रिलोकसाब के पृ० १४८ पर सोध स्वर्ग के मानस्तम्भ का जो चित्र छपा हुआ है वह इसी प्रति का है। पुरानी कळा की सुरक्षाको दृष्टि में रखते हुए उनका फोटो लेकर जैसे का सा ही छाप दिया गया है। इसप्रकार इस अत्यन्त जोणं प्रति का भी महान उपकार है ।
ग्रन्थ समाप्ति के बाद संस्कृत टीका सहित एक प्रति पूना भण्डारकर रिस इन्स्टीट्यूट से, एक प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन व्यावर से और कड़ भाषा को ताड़पत्रीय एक प्रति सहारनपुर मन्दिर से श्री रतनचन्दजी के सौजन्य से प्राप्त हुई। कन्नड़ भाषा की अनभिज्ञता के कारण इस प्रति का पूरा उपयोग नहीं हा कारमा मा ३२७ के चित्रों का मिलान इस प्रति की आकृतियों से करके ही उनकी यथावंता का निलंय किया गया है। अन्य दो प्रतियों का मिलान निवाई चातुर्मास में
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