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दिसा "दुम्हें शीघ्रातिशीघ्र इस ग्रंथ का पूरा अनुवाद करना है" गुरु का यह प्रेरणामय आदेश प्रा हा। सुनते ही मुझे ऐसा अनुभव हुआ मानों मकोड़े की पीठ पर गुड़ की परिया ( भेलो ) रखी जा रही है। अपनी प्रसमर्थना के लिए बहुत अनुनय विनय को किन्तु "आज्ञा माने आज्ञा, करना ही पड़ेगा" इस आदेश के आगे मुझे नत मस्तक होना पड़ा और उसो समय समयसार को गाया याव आ गई कि"पगरण चेदा कस्स वि ण प पायरणो त्ति सो होई" अर्थात प्रकरण की चेष्टा होते हुए भी मैं प्राकरशिक नहीं हूँ कारण ग्रह कार्य में नहीं कर रहो बल्कि गुरुका आदेश करा रहा है। आसौज कृ. ९ को श्री रतनचन्द्रजी सहारनपुर चले गये और मैंने श्री जिनेन्द्रदेव एवं गुरु के पवित्र चागों को अपने हृदय कमल में स्थापित कर मौज कृ० १३ गुरुवार को प्रातः गुरु की होरा में जब उच्चका बुध सूर्य एवं मंगल के साथ लग्न में पा; चन्द्र एवं शुभ सिंह राशि पर तथा सगृही गुरु केन्द्रस्थ था तब कार्य का श्री गणेश किया। प्रतिमाह २०० गाथा के हिमान में माघ शु० दूज तक रंगीन चित्रण सहित ८.. गाथाओं को प्रेस कापी नैपार हो गई इसके बाद कुछ ऐमे कारण कलाप उपस्थित हो गये जिससे ३९ माह लेखन कार्य बिलकुल बन्द रहा । महाराज धी के आदेश एवं प्रेरणा में ज्येष्ठ माह में पुनः उस्माह जापत हा और सं० २०३० ज्येष्ठ शु. पूणिमा शुक्रबार मृगशोनिक्षत्र में जबकि कन्या लग्न में उच्च का चन्द्र सूर्य एवं शनि के साथ लग्न में, स्वगृही बुध धन स्थान में, मयल दशम और गुरु धर्म स्थान (त्रिकोण ) में स्थित था तब इस बृहद् कार्य की परिसमाप्त हुई।
पड़ने पकाने की बात तो दूर नहीं किन्तु जिस ग्रन्थ को आद्योपान्त कभी एक बार भी नहीं देखा उसके अनुवाद में कितनी कठिनाइयाँ उपस्थित हुई यह लिखने की बात नहीं है । किन्तु मरस्वती माता और गजमों के प्रसाद से वे कठिनाइया तत्क्षण सुलझती गई। जिसप्रकार मृत्यु भो स्वप्रत्यय से उपस्थित नहीं होती अर्थात् काम वह करती है और नाम किसी रोमादिक का होता है कि अमुक रोग से मृत्यु हुई, उसीप्रकार हृदय स्थित गुरु एवं गुरु भक्ति ने ही स्वयं यह सम्पूर्ण कार्य निविघ्न समाप्त किया है मेरा इसमें कुछ भी नहीं है मैं तो रोग के स्थानीय है। अथवा श्री गुणभद्राचार्य के वचनानुसार मात्र के फलों में जो सरसता' आदि गुण हैं वे आम्र' के स्वयं के नहीं हैं बल्कि वृक्ष के द्वारा ही प्रदत्त है, उसी प्रकार यह जो कुछ लिखा जा रहा है वह गुरु के द्वारा ही प्रदत्त है कारण गुप्त मेरे हृश्य में निरन्तर विद्यमान हैं और वे हो इस प्रमेय को संस्कारित कर रहे हैं अतः मुझे इसमें कुछ परिश्रम भी नहीं हो रहा है। मेरी भी मारशः यही बात है। अर्थात् हृदयस्थ गुरु चरणों ने ही सर्व कार्य सम्पत किया है। मैं ये सब बातें केवल शिष्टाचार को खाना पूर्ति के लिये नहीं लिख रही है किन्तु अनुभव की पथार्थता . पुरूणामेव माहारम्यं यद्यपि स्वाद मचः ।
समण हिमाण परफर्म स्वाजायते ॥मा० पु. ४३-७ निर्यात हरपायाधो दिये गुरखः स्थिताः।
तत्र संस्करिष्यन्न वन में परिधम ॥ आपु. ४-५