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आद्यमिताक्षर
यह परम सौभाग्य की बात है कि भगवान कुन्दकुन्द की आम्नाय में प्रवर्तन करने वाले इस युग के महान तपस्वी चारित्र चक्रवर्ती स्व० आचार्य श्री १०८ शान्तिसागरजी महाराज की पवित्र परम्परा में मेरा जन्म (दीक्षा) हुआ। आपके प्रथम सुशिष्य स्व० आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज थे जो अनेक गुरा विभूषित एवं निर्मल रत्नत्रय से समन्वित थे। आपके प्रथम सुशिष्य स्व० आचार्य श्री १०८ शिव सागरजी महाराज हुए जो अपने समय में दिगम्बर धर्म रूपी नभ मण्डल के सूर्य थे। भयाताप से पीड़ित जीवों को शान्ति सुधा का पान कराने के लिए पूर्णमासी के चन्द्र थे, धार्मिक ज्योतिर्मय दीप के श उन परमोपकाजी गुरु ने मोहान्धकार में भटकने वाली भवभीरू मेरी आत्मा को रत्नत्रय रूपी ज्योति प्रदान कर मेरी अशुद्ध मति ( बुद्धि ) को विशुद्ध किया । सं० २०२५ में आपके स्वर्गारोहण के बाद आपके पट्टाधा आचार्य १०८ श्री धर्मसागरजी महाराज हुए जो निर्भय, निःसंग एवं निर्लेपता के साथ आज भारत में हिसामय जन धर्म का डंका बजा रहे हैं ।
११ पूज्य स्व० आचार्य १०८ श्री वीरसागरजी महाराज के अस्तिम परम सुशिष्य परम पूज्य १०८ श्री सन्मतिसागरजी महाराज एवं परम पूज्य आचार्य कल्प १०८ श्री श्रुतसागरजी महाराज अनेक क्षेत्रों में मंगल विहार करते हुए स्पर कल्याण कर रहे हैं। परम पूज्य आचार्य कल्प श्री श्रतसागरजी महाराज यथार्थ में अत के हो सागर हैं। चारों अनुयोगों पर आपका विशिष्ट अधिकार होते हुए भी करणानुयोग रूपी सघनवन में बिना प्रयास प्रवेश करने की आपमें अपूर्व क्षमता है, इसी कारण सिद्धान्त भूपण श्री रतनचन्दजो मुक्तार सहारनपुर वाले करीब ८, १० वर्षों से चातुर्मास में निरन्तर आते हैं । मेरा भी आपसे परिचय हुब्बा और सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम में प्रवेश करने की कुञ्जियों को प्रायः आपके सौजन्य से प्राप्त हुई । संभवतः २०१५ की बात है- आपने कहा कि त्रिलोकसार महान ग्रन्थ है आपको एक बार उसका स्वाध्याय करना चाहिए। बात हृदयंगत हो गई और हिन्दी जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय से प्रकाशित त्रिलोकसार की दो प्रतियों साथ भी रख लो किन्तु इस ग्रन्थ में क्या, कितना और कैसा प्रमेय है यह कभी खोलकर नहीं देखा ।
सं० २०२९ के अजमेर चातुर्मास में मैं घबल ग्रन्थ को सचित्रदृष्टियों तैयार कर रही थी, बन्हें देख भी रतन चन्दजी ने मुझे पुनः त्रिलोकसार को स्मृति दिलाई, मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई और दूसरे ही दिन त्रिलोकसार का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया। तीसरी गाथा का अर्थ जिस समय बुद्धिगत हुआ उस समय आत्मा में जो अपूर्व माह्लाद एवं उत्साह जाग्रत हुआ वह लेखनी द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता इस प्रकार १४० पाथाओं का स्वाध्याय विशेष चिन्तन एवं मनन पूर्वक श्री रतनचन्द्रओ के सानिध्य में हुआ। यह अपूर्व प्रमेय कहीं भविष्य के यतं में न को जाय इस भय से मैंने रंगीन चित्रण सहित उसे नोट कर लिया। एक दिन मनायास बद्द रजिस्टर पूज्य बड़े महाराजजी के हाथ लग गया। आपने बड़े ध्यान से देखा और बोले वह तो छपना चाहिए। श्री रतनचन्हों ने तत्काल उसका समर्थन कर