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'ज' प्रति का परिचय यह प्रति लूणकरण पाण्या शास्त्रभपवार जयपुर की है । श्रीमान पं० मिलापचन्द्रशी के सौजन्य से प्राम हुई है । इसमें १३१४६१ इन्च विस्तारवाले ७१ पत्र हैं। प्रति पत्र में १३-१६ पंक्तियां हैं और प्रत्येक पंक्ति में ४०-४५ तक अमर है। गाथाएं मूलपात्र हैं, आज बाजू में टिप्पण दिये हैं तथा भनेक सुन्दर चित्र अंकित हैं। इसका लिपिकाल आषाढ़ बबी ५ सम्वत् १६१५ शनिवार है। मंकुलेश्वर में इसको लिपि हुई है । अक्षर सुवाच्य हैं परन्तु वशा परयन्त जीर्ण है। इसके प्रत्येक पत्र को प्लास्टिक के पारदर्शक लिफाफे में सुरक्षित किया जाना है । इसकी प्रशस्ति इस प्रकार है
"संवत १६१० वर्ष आषादबदि ५ शनो अंकुशेश्वरस्थान प्रोपद्मप्रभचैत्यालये श्री श्रीमूल संघ श्री सरस्वती गच्छ श्री बलात्कारगण
श्री विद्यानन्दीश्वरं देवं मन्लिभूषणसद्गुरुम् ।
लक्ष्मीचन्द्रं च नीन्दनन्द्रश्री नववण । प्राचार्य श्री सुमतिकीर्तितफिछध्य आचार्य श्रोरत्न भूषणस्येदं पुस्तकं भी त्रैलोक्यतारमूनसूत्रग्रंथः। शुभं भवतु । जयपुर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'ज' है।
'स' प्रति का परिचय यह प्रति ताड़पत्र पर कन्नड भाषा में लिखित है। लाला जम्यूप्रसादजी सहारनपुर के मन्दिर की है। इसमें २३३४१३ध्यास के ११७ पत्र हैं, प्रति पत्र में ३ कालम और प्रत्येक कालम में ६-६ पंक्तियां हैं। सहारनपुर से प्राप्त होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'स' है।
'म' प्रति का परिचय __ पह प्रति मुद्रित है। श्री माणिक्यचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला समिति, बम्बई द्वारा ग्रन्थमाला के १२८ पुष्प के रूपमें ज्येष्ठ, वीर निवारण सं० २४४४ में प्रकाशित हुई है। इस प्रथमावृत्ति का मूल्य एक रुपया बारह आना है। इसका सम्पादन संशोधन पं० मनोहरलालजी शास्त्री द्वारा हुआ है। प्रारम्भ में ग्रन्पमाला के मंत्री श्री नाथूरामजी प्रेमो द्वारा लिखित अन्यकर्ता श्री नेमिचन्द्राचार्य का परिचय दस पृष्ठों में है । प्रत्येक गाथाके साथ संस्कृत छाया और श्री माधवचन्द्र विद्यदेवकूठ उसकी संस्कृत टीका है । मुद्रण स्वच्छ और सुरुचिपूर्ण है, यत्रतत्र प्रफको भूलें अवश्य हैं । त्रिलोकसार मूळ ग्रन्थ ४०५ पृष्ठों में है, इसके बाद २० पृष्ठों में गाथाओं की अकाराविक्रम से सूची दी गई है । इस प्रकार पुस्तकाकार इस प्रतिमें कुल ४३५ (१०+४०५+२.) पृष्ठ हैं।
मुद्रित होने के कारण इसका सांकेतिक नाम 'म' है। प्रस्तुत संस्करण का मूल आधार यही मुद्रित प्रति है।