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. त्रिलोकसार
पापा २०४ बिरया। निरयानिःसतः मरतियोगत्योः कर्मभूमो संमिनि पर्याप्त नभवे सत्पद्यते । सरतमपूपिण्यास्तु मिर्गसस्ताहग्वितिरां गतो जस्पद्यते ॥२०॥
नरक से निकलने वाले जीवों की उत्पत्ति का नियम कहते है:
गाथार्थ:- नरक से निकला हुआ जीव मनुष्यगति और तिपंचगति में कमभूमिज, संजी, पर्यातक और भंज ही होता है, तथा सप्तम पृथ्वी से निकला हुआ जीव कर्मभूमिज, संत्री, पर्याप्तक और गर्भज तिर्यश्च होता है ॥२॥३।।
विशेषार्थ:-प्रथम पृथ्वी से घष्ठ पृथ्वी ज़क के नारको जोब नरक से निकल कर मनुष्य गति और तियश्च गति में कमभुमिज, संजी, पर्याप्तक और गर्भज होते हैं। भोग भूमिज, असंजी, सध्याप्तिक और सम्मूच्छन नहीं होते, तथा सम्म नरक के नारकी उपयुक्त विशेषणों सहित मात्र तियश्च गति में जन्म लेते हैं, मनुष्य नहीं होते । अथ रणरतिरिए इति नियमे तत्रापि कि सनत्रेत्याशङ्कायामाच
गिरपचरो गस्थि हरी बलचक्की तुरियपहदि णिम्सरियो । तित्थचरमंगसंजद मिस्सतियं गन्थि णियमेण ॥२.४।।
निग्यघरो नास्ति हरिः बलकिगो तुरीयप्रभृतिनिःसृतः ।
तीर्थचरमाङ्गसंपत्ताः मित्रत्रय नास्ति नियमेन ॥२०४। गिरनरपरो मास्ति हरि: बलचक्रिणो सुर्यप्रतिनि:सतः ययासंख्य तीर्थकरघरमाणसंयता विषत्रया मिषायतवेशसंयता म सन्ति नियमेम । प्रसंयत्तस्वनिषियवारसासाबमस्वस्याप्यभाव एक ॥२०॥
उपयुक्त नियमानुसार क्या वे बीच सर्वत्र उत्पन्न होते हैं ? ऐसी शंका होने पर कहते हैं:
गाया:-नरक से निकला हुआ जीव नारायण, बलभद्र और चक्रवर्ती नहीं होता। चतुर्थादि पृथ्वी से निकला हा जीव तीर्थकर, पश्चमादि से निकला हा चरम शरीरी, षष्ठ आदि से निकला हमा सकल संपमो पोर मप्तम पृथ्वी से निकला हुआ नारको जीव नियम से मम्यग्मिध्याष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और देश संयमी नहीं होता ।।२०४॥
विशेषार्थ:-नरक से निकले हुए मारकी जीव नारायण, बलभट और चक्रवर्ती नहीं होते। तथा चतुर्थादि पृध्वियों से निकले हुए जीव यथाक्रम तीर्थङ्कर, घरमशरीरी, सकलसंयमी और मिश्रश्रय ( सम्यग्मिध्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और देशसंयम ) में उत्पन्न नहीं होते। यह असंयत सम्पदृष्टि का निषेध करने से ऐसा जानना चाहिए कि सातवीं पृथ्वी से निकला हा जीव सासादन सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकता, मात्र मिथ्यापि ही होता है।