SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 509
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पाया।५४१-५४२ वैमानिकलोकाधिकार ४६५ उदविदल पल्याधं भवने क्यन्तरतिके क्रमेणाधिकं । समीचि मिध्ये घाते पल्यासंख्यं तु सर्वत्र ॥ ५४१ ॥ उपहिवसं । पातायुके सम्पादृष्टो भवने व्यन्तरज्योतियोश्च यथाक्रमम् तत्र तत्रोतायुषः सकाशवशंसागरोपमं पल्याडं भाषिक' मातापम् । घातायुष्के मिभ्याटोपल्यासपासमार्ग तयाधिक । एवं सर्वत्र करूपेवपि ॥ ५४१ ॥ घातायुष्क सम्यग्दृष्टि और मिथ्या दृषि की आयु विदोष कहते है पाया:-जिसने सम्पकत्व अवस्था में बद्ध देवायु का घात किया है वह जीव यदि भवन वासियों में उत्पन्न होता है तो उसको उत्कृष्टायू अध सागर अधिक होगी, यदि यह व्यन्तर या ज्योतिषियों में उत्पन्न होता है तो अधं पल्य अधिक होगी। जिसने मिथ्यात्व अवस्था में बद्ध देवायु का घात किया है वह पल्य का असंख्यातवा भाग अधिक आयु वाला देव होया । इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए ।। ५४१ ॥ विशेषार्थ :-जिस मनुष्य ने संयम अवस्था में देवायु बंध किया है, पश्चात् संयम से व्युत होकर सम्यग्दृष्टि अवस्था में देवाय का पारा करता है. पश्चात् मियाद अवा, मरण कर यदि भवनवासी देवों में उत्पन्न होता है तो उसकी आय भवनवासियों की एक सागर उत्कृष्टायु से आषा सागर अधिक अर्थात् डेढ सागर होगी, यदि व्यन्तर या ज्योतिषी देवों में उत्पन्न होता है तो एक पल्य की उत्कृष्टाय से आषा पल्य अधिक होगी ऐसा जानना चाहिए। जिसने सम्यक्त्व अवस्था में देवाय का बंध किया है पश्चात मिष्याष्टि होकर देवायु का षात करता है उसकी देवाय सर्वत्र पल्य का असंख्यातवा भाग अधिक होगी। इसी प्रकार सर्वत्र कल्पवासियों में अर्थात् बारहवें स्वर्ग तक जानना चाहिए। अथ कल्पस्त्रीणां स्थितिप्रमाणं कथयति माहियपन्लं अवरं कप्पदुगिन्थीण पणग पढमवरं । एक्कारसे चउक्के कप्पे दोसचपरिवड्डी ।। ४४२ ॥ साधिकपल्यं प्रवर कल्मति के स्त्रीणां पञ्चकं प्रथमवरं । पकादशे चतुके कल्पे द्विसप्तपरिवृद्धिः ॥ ५४२ ।। साहिय । सौषमकस्पतिमीणामवरमाया साधिकपस्य प्रयमे सोषपरमाष: पञ्चपल्प। प्रय ईशानायेकावशकल्पेषु मानतावितुः कल्पे यथासंख्य सौप तपञ्चपल्याव सिद्धिः सप्तरिटिश्व मावा ॥ ५४२ ॥ कल्पवासी देवाङ्गनाओं की आयु का प्रमाण कहते हैं :गाथा :-सौधर्मशान में देवांगनाओं की जघन्यायु कुछ अधिक एक पल्य है। तथा उत्कृष्टायु
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy