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त्रिलोकसार
पाच। 18-kg-1४१ अय उक्तानां लोकान्ति कानो विशेषस्वरूपं गाथाद्वयेनाह
ते हीणाहियरहिया विसयविरसा य देवरिसिणामा । मापिक्खदचचिचा सेससुराणच्चणिजा हु॥ ५३९ ॥ चोदसपुच्चघरा पडिवोहपग तिस्थयरपिणिमणे । एदेसिमहजल हिद्विदी अरिद्वस्त गव चेव ।। ५४० ॥ ते हीनाधिकरहिता विषयविर काश्च देवपिनामामः । अनुप्रेक्षादत्तचित्ता: शेषसुराणामचनीया हि ॥ ५३९ ॥ चतुदशपूर्वधराः प्रतिबोऽपरा: तीर्थ करविनिः क्रमणे ।
एतेषामष्टजल घिः स्थिति: अरिष्टस्य नव चैव ॥ ५४० ॥ से होगा। ते हीनाधिकरहिता विषयविरक्ताश्च देवऋषिनामा: पनपेक्षामनविता: शेषसुराणामचनीयाः खलु ॥ ५३६ ॥
घोस ! चतुवंशपूर्वघरास्तीर्षकरविनिःकमणे प्रतिबोधनपरा एतेषां प्रत्येकमसागरोपमाण्याय. प्ररियस्य तु नवसागरोपमाः ॥ ५४० ॥
उक्त लोकान्तिक देवों का विशेष स्वरूप दो गाथाओं द्वारा कहते हैं:--
गाथा :- वे लोकान्तिक देव होनाधिक ( ऋद्धि आदि ) से रहित, विषयों से विरक्त, देवऋषिनाम वाले, अनुप्रेक्षाओ मैं दत्तचित्त, अवशेष इन्द्रादि देवों से पूज्य चौदह पूर्वधारी और निःक्रमण कल्याण के समय तीर्थकरों को प्रतिबोध देने में तत्पर रहते हैं। इनमें अरिष्ट लोकान्तिक वों की आयु नौसागर और अन्य लोकान्तिकों को आठ सागर प्रमाण होती है ।। ५३९, ५४० ।।
विशेषार्थ :-लोकान्तिक देव आपस में समान अर्थात् ऋद्धि आवि की हीनाधिकता से रहित एवं विषयों से विरक्त रहते हैं। देवताओं के बीच ये ऋषियों के सदृश हैं, अतः इन्हें देवर्षि ( देव ऋषि कहते हैं । ये निरन्तर अनिरयादि बारह भावनाओं के चिन्तन में दत्तचित्त रहते हैं। ये इन्द्र को शादि लेकर समस्त देवों से पूजित है। चौदहपूर्व के पाठी हैं। दीक्षाकल्याणक के पूर्व तीर्थङ्करों के वैराग्य की अनुमोदना करते हुए उन्हें प्रतिबोध करने में तत्पर रहते है । इनकी आयु आठ सागर प्रमाण होती है। इनमें केवल अरिष्टकुल के लोकान्तिकों की आयु ९ मागर की होती है। अथ धातायुष्कसम्यग्दृष्टिमिध्यादृष्ट घोरायविशेषमाह
उवाहिदलं पग्लद्धं भवणे वितरदुगे कमेणहियं । सम्मे मिच्छे घादे पन्लासखं तु सव्वस्थ ।। ५४१ ।।