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________________ पापा : ५३७-५३८ वैमानिकलोकाधिका ४६३ १५ अश्व और विश्व हैं। इनमें प्रथम अग्न्याभ का प्रमाण अषण के सदृश है, तथा इसके मागे पनि चय का प्रमाण उपयुक्त प्रमाण सहश ही है ।। ५३७, ५३६ ।। विशेषार्थ :- सारस्वत और आदित्य के बीच में अग्न्याभादि दो कुल है। आदित्य और वह्नि के बीच चन्द्रामादि दो, बह्नि और अरुण के बीच श्रेयस्कर आदि दो, अक्षण और गवतीय के बीच वृषभेष्ठादि दो, गर्द तोय मोर तुषित के बीच निर्वाणरजस् आदि दो, तुषित और मध्यावाघ के बीच भारमरक्षितादि दो, अव्यावाध और मरिष्ध के अन्तराल में मस्त आदि दो तथा अरिष्ट और सारस्वत के अन्तराल में अश्व आदि दो कुल हैं। इस प्रकार कुन १६ कुल हैं । कुली के सदृश ही इन दवों के भी नाम है। प्रथम अग्न्याभ देवों का प्रमाण अरुण के सदृश अर्थात् ७००७ है । इसके ऊपर वृद्धि चय पूर्वोक्त प्रमाण अर्थात २००२ है। प्रथा- अग्न्याभ देवों का प्रमाण ७०.७ है, सूर्याभ ९.९, चन्द्राभ ११०११, सस्था १३.१३, श्रेयस्कर १५०१५, क्षमङ्कर १७०१७, वृषभेष्ट १९०१९, कामघर २१०२१, निर्वाणरजस् २३०२३, दिगन्तरक्षित २५०२५, आत्मरक्षित २७०२७, सर्वरक्षित २६०२६, मस्त ३१०३१, वसु ३३०३३, अश्व ३५०३५ और विश्व देवों का प्रमाण ३४.३७ है। आठ अन्तरालों में रहने वाले इन सोलह कुलों का कुल प्रमाण १५२३५२ ( तीन लाख बाबन हजार तीन सौ बावन ) है । इसमें उपयुक्त • आठ कुलों का ५५४६८ प्रमाण मिला देने पर आठ दिशाओं के माठ कुलों एवं आठ अन्तरालों के सोलह फूलों के लौकान्तिक देवों का कुल प्रमाण ( ३५२३५२+ ५५४६८ = ४०७६२० होगा है। यथा : Jena 31-Onvarli NI गाविस श्राप
SR No.090512
Book TitleTriloksar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, Ratanchand Jain, Chetanprakash Patni
PublisherLadmal Jain
Publication Year
Total Pages829
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Geography
File Size19 MB
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